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________________ सूझा तो एक राज और बतला दिया, भैया जी माना कि हमारे कार्यक्रमों में हूटिंग हुड़दंग होता है, तभी एक सदस्या ने धीरे से कहा सीटी भी बजती है। मण्डल प्रमुख ने कहा फलां वेदी पर सायं ७ बजे से १०.३० तक जो आरती होती है, उसमें क्या नहीं होता। यहाँ तक की अन्य जाति के लड़के भी आते हैं। और क्या-क्या होता है, हम कह नहीं सकते आप सुन नहीं सकते। मैंने कहा यही तो मैं कह रहा हूँ पर्व के दौरान होने वाले कार्यक्रमों में एक प्रकार से सातों व्यसन परिपुष्ट हो रहे हैं। हार-जीत, रागद्वेष, हर्ष-विवाद, शारीरिक, मानसिक विकार आदि प्रदूषण के बादल पर्युषण के दिव्य सूर्य को ढक रहे हैं। आरती में जब फूहड़ता पर आइटम गानों की तर्जी पर लोग नाचेगें तो भक्ति नहीं कामव्यक्ति ही बढ़ेगी और इसका खतरनाक उदाहरण एक शहर में सुनने को आया। आरती में कॉम्पटीशन बढ़ा, वेष-भूषा विकृत हुई अनजान युवकों का प्रवेश हुआ एक धनाढ्य परिवार की बालिका की एक अनजान युवक से आखें चार हुई प्रेम प्रपंच में नासमझ फंस गई। धीरे-धीरे व्यावहारिक मर्यादायें टूटीं शील भंग हुआ और उसकी व्ही. सी. डी. तैयार हुई और इसके बदले में माँ-बाप से लाखों रुपए वसूल कर केस रफा-दफा हुआ। पर सुगंध और दुर्गंध छिपती नहीं है। लोगों को चर्चा का विषय मिले और चर्चा न करें यह कैसे संभव है लेकिंन वे भूल रहे हैं जो घटना आज दूसरों के घर में घटी है वह अपने घर में भी घट सकती है। कारण मन को विकृत करने का साधन टेलीविजन सातों व्यसनों का केन्द्र घर में तो मौजूद है ही, हमने सांस्कृतिक कार्यक्रमों के नाम पर पर्व आदि के अवसर पर मंदिरों में टी. वी. कार्यक्रमों की नकल पर प्रोगाम प्रस्तुत करना शुरु कर दिया। इससे सबसे बड़ी हानि यह हुई कि धार्मिक ज्ञान एवं मंदिर की मान मर्यादाओं से अनभिज्ञ असम्यक् चेतना के लोगों का मंदिरों में प्रवेश हुआ और कार्यक्रमों की ओट में असम्यक् गतिविधियों का सूत्रपात हुआ। फिर क्यों न इन कार्यक्रमों को पूर्णतः बंद कर दिया जाय । एक समय था कि घर में भी माँ जिनवाणी का स्वाध्याय होता था । आज तो कुछ एक विधानाचार्यों ने विधान आदि में शास्त्रसभा को ही बंद कर दिया, यह अक्षम्य अपराध है। एक तरफ हम रात्रि विवाह का निषेध कर रहे हैं, दूसरी ओर विधान आदि में आरती की बोली लगाकर हाथी बैण्ड बाजे जनरेटर लाईट और कॉम्पटीशन का भाव हो तो पूरी बारात की तरह आरती 12 सितम्बर 2007 जिनभाषित Jain Education International । यात्रा निकलती है। हजारों लाखों बिजली के कीड़ों को रौंधते हुए क्या धर्म की जय हो सकती है। पर क्या करें बिजली के कीड़ों को तो कोई जीव मानता ही नहीं। रात्रि स्टेज प्रोगामों में भी हेलोजन आदि के प्रयोग से मंच पर कीड़ों की बरसात होती है और उन्हीं जीवों को पैरों तले रौंदकर घोर हिंसा होती है। इससमय कहाँ पलता है 'जियो और जीने दो' का धर्म । कुछ लोग भीड़ के साथ खड़े होकर सोच रहे हैं, भीड़ हमारे साथ है। एक समय था जब समाज के स्तर को व्यक्ति के स्तर को ऊँचा उठाने कार्यक्रम होते थे आज तो भीड़ के स्तर पर कार्यक्रम होते हैं। मैंने सुना है तीर्थंकर भगवंतों के चरण कमल में शेर और गाय एक साथ पानी पीते थे। जन्मजात प्रतिस्पर्धी आपसी बैर को भूल जाते थे । यही धर्म का अभ्युदय था । पर आज जो कार्यक्रमों के नाम पर प्रतिस्पर्धा के संघर्ष को बढ़ाया जा रहा है। बेबी प्रतियोगिता के नाम पर सीधे-सीधे सौन्दर्य प्रतियोगिता हो रही है, फूहड़ हास्य व्यंग्य हो रहे हैं । फिल्मी गानों की धुनों पर नृत्य हो रहा है, कुल मिलाकर वह सब कुछ हो रहा जो धर्म की आत्मा को आवृत करता है देवशास्त्र - गुरु की अविनय करता है। अब समय आ गया है। कि धर्मपीठ से इन बुराईयों के खिलाफ जागृति का शंख नाद किया जाए। पर्व धर्मध्यान की वृद्धि को आते हैं, अतः पर्व के आयोजन में प्रयोजन को न भूल जायें। और वैसे भी धर्म मनोरंजन का नहीं आत्मरंजन का साधन है । मैं आशा करता हूँ परम पूज्य आचार्य भगवतों से साधु संतों से, पूज्य आर्यिका माताओं, एवं श्रद्धेय ब्रह्मचारी भाई एवं ब्रह्मचारी बहिनों के साथ-साथ सम्मानीय जिनवाणी उपासक विद्वान्गण सभी इस ओर ध्यान देकर धर्मोपदेश पीठ से इन बुराईयों के प्रति जागृति का शंख नाद करेंगे। समस्त पत्र-पत्रिकाओं के सम्मानीय सम्पादकों से नम्र निवेदन है कि वे भी पर्व के पूर्व में ही उपरोक्त विषय पर अपनी लेखनी से विकृतियों के उन्मूलन की दिशाओं में सार्थक प्रयास करेंगे। लिखते-लिखते एक धर्म नगरी की महावीर जयंती का वर्णन और कर दूँ। दो बजे से महावीर जयंती का जुलूस निकला, उपस्थिति धीरे-धीरे बड़ी, कार्यक्रम स्थल पर कोई व्यवस्था नहीं। बिना माईक के अभिषेक पूजन हुआ। मैंने आश्चर्यचकित होकर एक सज्जन से पूछा यहाँ की महावीर जयंती तो प्रशंसनीय है इतनी सादगी तो मैंने कही नहीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524320
Book TitleJinabhashita 2007 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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