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नहीं हैं।
आचार्य के इस सहज और साधारण कथन को आधार बनाकर इतना तूल बाँध दिया है कि परमागम जिनागम की रीढ़ श्रमण संस्कृति ही चकनाचूर होने की स्थिति में आ पहुँची है ।
यहाँ विचारणीय है कि जिनेन्द्र भगवान् का ज्ञान और दर्शन अनन्त पदार्थों की अनन्त पर्यायों का ज्ञाता दृष्टा है या भगवान् के दर्शन में तीन लोक की त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायें युगपत् प्रतिभासित होती हैं उन पर्यायों को भगवान् एक समय में जानते हैं उनका संचालन नहीं करते । भगवान् का ज्ञान कोई वैरोमीटर नहीं है जो बटन दबाते ही कक्षा में स्थित उपग्रह को धमाके के साथ कक्षा के बाहर कर दे, यह काम बैटरी का है, परणति पदार्थों की है। दूरबीन की नहीं, दूरबीन देखती है, पदार्थ में परिवर्तन नहीं करती। पदार्थों की व्यतीत, वर्तमान एवं अनागत अनंत पर्यायों का ज्ञान केवलज्ञानी आत्मा की परिणति अथवा पर्याय है। चित्र लेते समय कैमरा द्वारा नाक पर बैठी मक्खी का चित्र आ जाना कैमरा का कार्य है, नाक पर मक्खी का बैठा देना नहीं ।
जीवन और मरण में प्रधान कारण आयु कर्म का उदय, उदीरणा और क्षय है। उस आयु कर्म की स्थिति को ही काल की संज्ञा दी गई है, केवली के ज्ञान को नहीं । स्वामिकार्तिकेय की उक्त गाथा यही स्पष्ट करती है कि सभी जीव अपनी सभी पर्यायें स्वयं संचालित करते हैं। केवली भगवान् उन्हें देखते जानते मात्र हैं, अणुमात्र भी उनमें परिवर्तन नहीं कर सकते। यदि केवली के ज्ञान से ही जीवन-मरण आदि पर्यायों को बांध दिया जावे तो कर्म की उदीरणा अवस्था ही समाप्त हो जावेगी, तदनुरूप ही उदय - उत्कर्षण - अपकर्षण भी शब्द मात्र रह जायेंगे, कार्यकारी नहीं। फिर तो " श्राम्यति इति श्रमणः " जो आत्ममार्ग की विशुद्धि में श्रम करता है वह श्रमण है यह व्युत्पत्यर्थ मात्र रुढ़ रह जायेगा । इस स्थिति में " तपकरि जो कर्म खिपावै " का सुसंगत सिद्धांत क्या अभिप्राय रखेगा?
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे । धर्माय-तनु-विमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥१२२॥
स्वामिसमंतभद्र की रत्नकरण्ड श्रावकाचारगत इस अमृतमयीवाणी में शरीर छोड़ने की जिस असाधारण प्रक्रिया को अपनाने के लिए साहसी वीरों को आह्वान किया है वह किसी प्रकार तर्क संगत नहीं रहेगा। जबकि पदार्थ
20 अगस्त 2007 जिनभाषित
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में अनागत सभी पर्यायें दीवाल में ईंटों के समान क्रमबद्ध चिनी हुई होंगी वह क्रम तो टूटेगा नहीं फिर सल्लेखनाअणुव्रत - गुप्ति समिति आदि केवल दंड-बैठक ही रह जावेंगे।
प्रायः नियतकालिक सल्लेखना धारण करनेवाले सभी वीर श्रमणराज अकालमरण को ही आमन्त्रित करते हैं । वे तिल-तिल सड़कर आयु के अंतिम निषेक और क्षण की प्रतीक्षा नहीं करते, वीरवृत्ति से भारी पुरुषार्थ द्वारा शरीर से आत्मा को निकाल कर ले जाते हैं । इस प्रक्रिया में आयु का पूर्ण उपभोग भी हो सकता है और अकालमरण भी हो सकता है, इससे कुछ लेना देना नहीं है। आत्मपुरुषार्थ की निरंतर जागरुकता में अकाल मरण हो जावे इसमें कोई दोष नहीं, दोष है दीनाशय होकर विवशता में शरीर छूट जाने में और 'जो जो देखी वीतराग ने' की आड़ में कोसों दूर पलायन में ।
वीतराग प्रभु ने जो देखा है वह अवश्य ही होगा । यादवकुल चन्द्रमा नेमिप्रभु द्वारा द्वारावती दाह की भविष्यवाणी सुनकर प्रद्युम्नकुमार - शंबुकुमार आदि शतशः सहस्रशः दिगम्बरी दीक्षा धारण कर गये, अनेक द्वारिका छोड़ गये, एक ऐसे भी थे जो भगवान् की वाणी को चुनौती देने फिर द्वारिका लौट आये, अस्तु । उन्हें तो भगवान् की वाणी सुनने का साक्षात् सुअवसर मिला था तदनुसार अपनी-अपनी श्रद्धानुसार उन्होंने आचरण किया किंतु आज हमें तो श्रीमज्जिनेन्द्र के मुख से वाणी सुनने का अवसर ही उपलब्ध नहीं है और कोई कान में चुपके से कह भी नहीं गया है। क्यों न हम फिर चित्र का दूसरा पहलू उठाकर देखें । आर्यक्षेत्र, मनुष्यजन्म, उत्तम कुल, दिगम्बर धर्म, निर्ग्रथ साधु समागम, भव्य देशना हमें इस निकृष्ट कलिकाल में प्राप्त हुई है। अवश्य ही अगले कुछ भवों में मोक्षप्राप्ति की बलवती सम्भावना है, सम्मेदशिखर तीर्थराज की वंदना अधिक से अधिक ४१ भवों का संकेत है। यदि समाधिपूर्वक मरण हो जावे तो ७-८ भवों में ही परिगमन का वीजा प्राप्त समझिये । इसप्रकार अनुलोम विचार व चिंतन की ओर क्यों नहीं बढ़ते । यदि प्रतिलोम विचार व चिन्तन है तो अवश्य ही किसी कंपा देने वाले पारिणामिक भाव के द्योतक हैं।
मृत्यु सकाल होवे या अकाल होवे इससे कोई वास्ता नहीं -कोई चिंता नहीं, वीतराग प्रभु से एक ही प्रार्थना है कि वह समाधिपूर्वक होवे ।
वात्सल्यरत्नाकर (तृतीय खण्ड) से साभार
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