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________________ अदर्शन - परीषह - जय डॉ. रमेशचन्द्र जैन क्षुधादिवेदना के होने पर कर्मों की निर्जरा करने के। दर्शनमोहनीय के उदय से होता है, इसलिए इसे दर्शनमोहनीय लिए उस वेदना को सह लेना, परीषह का जीतना परिषह- का कार्य कहा है। भोजनादि पदार्थों के न प्राप्त होने से जय है । अन्तिम परिषह अदर्शन परिषह है। इसका लक्षण अलाभ को लाभान्तराय कर्म का कार्य कहा । पर के बतलाते हुए आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि परम वैराग्य लाभ को स्व का लाभ मानना मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय का की भावना से मेरा हृदय शुद्ध है, मैंने समस्त पदार्थों के कार्य है । इसलिए यहाँ इसकी विवक्षा नहीं है । यहाँ तो रहस्य को जान लिया है, मैं अरहन्त, आयतन, साधु और अलाभ परिणाम किसके उदय में होता है, इसका ही विचार धर्म का उपासक हूँ, चिरकाल से मैं प्रव्रजित हूँ, तो भी किया गया है। इसप्रकार अदर्शनभाव मोहनीय कर्म का मेरे अभी तक भी ज्ञान का अतिशय उत्पन्न नहीं हुआ और अलाभभाव लाभान्तराय कर्म का कार्य है। यह निश्चित है। महोपवास आदि का अनुष्ठान करनेवालों के प्रातिहार्य होता है। विशेष उत्पन्न हुए, यह सब प्रलाप मात्र है, यह प्रव्रज्या अनर्थक है, व्रतों का पालन निरर्थक है- इत्यादि बातों का दर्शनविशुद्धि के योग से मन में नहीं विचार करनेवाले के अदर्शन-परिषह-जय जानना चाहिए। दर्शनमोह के सद्भाव में अदर्शन परिषह होती है। इसकी व्याख्या करते हुए सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री ने कहा है- दर्शनमोह से यहाँ सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृति ली गयी है । इसका उदय रहते हुए, चल, मल और अगाढ़ दोष उत्पन्न होते हैं। सम्यक्त्व के रहते हुए भी आप्त, आगम और पदार्थों के विषय में नाना विकल्प होना 'चल' दोष है । जिसप्रकार जल के स्वच्छ होते हुए भी उसमें वायु के निमित्त से तरङ्ग माला उठा करती है, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष यद्यपि अनेक स्वरूप में स्थिर रहता है तथापि सम्यक्त्वमोहनीय के उदय से आप्त, आगम और पदार्थ के विषय में उसकी बुद्धि चलायमान होती रहती है यही चल दोष है । मल का अर्थ मैल है। शङ्कादि दोषों के निमित्त से सम्यग्दर्शन का मलिन होना मल दोष है, यह भी सम्यक्त्वमोहनीय के उदय में होता है तथा अगाढ़ का अर्थ है- स्थिर न रहना । सम्यग्दृष्टि जीव लौकिक प्रयोजन वश कदाचित् तत्त्व से चलायमान होने लगता है। उदाहरणार्थ, अन्य अन्य का कर्ता नहीं होता, यह सिद्धान्त है और सम्यग्दृष्टि इसे भली प्रकार जानता है, पर रागवश वह इस सिद्धान्त पर स्थिर नहीं रह पाता। वह पारमार्थिक कार्य को भी लौकिक प्रयोजन का प्रयोजक मान बैठता है। इसप्रकार सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से ये तीन दोष होते हैं। ये तीनों एक हैं, फिर भी भिन्न-भिन्न अभिप्राय की दृष्टि से यहाँ इन्हें पृथक्-पृथक् परिगणित किया है। यहाँ इसी दोष को ध्यान में रखकर अदर्शन परीषह का निर्देश किया है कि यह Jain Education International 1 यहाँ विशिष्ट कारण दर्शनमोह को कहा गया 1 अतः यहाँ अवधिदर्शन आदि विषयक सन्देह नहीं रहता है । यद्यपि दर्शन के श्रद्धान और आलोचन ये दो अर्थ होते हैं। पर यहाँ मति आदि पाँच ज्ञानों के अव्यभिचारी श्रद्धानरूप दर्शन का ग्रहण । अलोचनरूप दर्शन श्रुत और मन:पर्यय ज्ञानों में नहीं होता अतः उसका ग्रहण नहीं है। यद्यपि अवधिदर्शन आदि के उत्पन्न होने पर भी 'इसमें वे गुण नहीं हैं' आदि रूप अवधिदर्शन आदि सम्बन्धी परीषह हो सकते हैं, पर वस्तुतः ये दर्शन अपने-अपने ज्ञानों के सहचारी हैं, अतः अज्ञान परीषह में ही इनका अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे सूर्य के प्रकाश के अभाव में प्रताप नहीं होता, उसी तरह अवधिज्ञान के अभाव में अवधिदर्शन नहीं होता । अतः अज्ञानपरीषह में ही उन-उन अवधिदर्शन भाव आदि परीषहों का अन्तर्भाव है। इसीप्रकार श्रद्धानरूप दर्शन को ज्ञानाविनाभावी मानकर उसका प्रज्ञा-परीषह में अन्तर्भा नहीं किया जा सकता, क्योंकि कभी-कभी प्रज्ञा के होने पर भी तत्त्वार्थश्रद्धान का अभाव देखा जाता है, अतः व्यभिचारी है । दर्शनमोह के तीन भेद हैं- १. सम्यक्त्व, २. मिथ्यात्व और ३ तदुभय । दर्शनमोह बन्ध की अपेक्षा एक होकर भी सत्कर्म की अपेक्षा तीन प्रकार का है। इन तीनों में से जिसके उदय से यह जीव सर्वज्ञ प्रणीत मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थों के श्रद्धान करने में निरुत्सुक तथा हिताहित का विचार करने में असमर्थ ऐसा मिथ्यादृष्टि होता है, वह मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय है। वही मिथ्यात्व जब शुद्ध परिणामों के कारण अपने स्वरस (विपाक) को रोक देता है और उदासीन रूप से अवस्थित रहकर आत्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता है, तब सम्यक्त्व है। इसका वेदन करनेवाला अगस्त 2007 जिनभाषित 21 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524319
Book TitleJinabhashita 2007 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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