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________________ परिणामों से उस स्थिति का ह्रासकर मात्र चौरासी हजार । के कारणों से आयु का क्षय हो जाता है। वर्ष नरकायु रह गई थी। उसीप्रकार प्रथम स्वर्ग की २ सागर । कहाँ तक लिखा जाय उक्त कथन का सुप्रसिद्ध की उत्कृष्ट आयुबंध करनेवाला जीव सम्यग्दर्शन की | जैनागम श्लोकवार्तिक, धवला, भगवती आराधना आदि विशुद्धि या विशिष्ट संयम के बल से कुछ अधिक सागर | | ग्रंथों में विशद वर्णन-समर्थन मिलता है। स्वामी अकलङदेव की स्थिति ले जाकर प्रथम स्वर्ग में भोग करता है। यह | अपनी सशक्त वाणी में कहते हैंक्रम बारहवें स्वर्ग तक है। __अकाल मृत्यु के निवारण के लिए ही आयुर्वेद और देव नारकियों की जितनी आयु-बंध की स्थिति होती | रसायन-शास्त्रों का सृजन किया गया है। है उतनी नियम से भोगते हैं। उसीप्रकार तदभव मोक्षगामी सारांश यह है कि नियमतः जो कर्मभूमिज मनुष्य एवं भोगभूमियाँ जीव भी पूरी आयु का भोग करते हैं। महान् | या तिर्यञ्च अपने पर्व भवान्त में आयुकर्म की जितनी स्थिति वाले निषेक साथ में लाये हैं उतनी स्थिति तक उनका देहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः" अटल और अनपवाद | उपभोग करते हैं किन्तु विपरीत कारणों के, जिन में कुछ युक्त है। शेष जीव मनुष्य या तिर्यंच जितनी बध्यमान आयु का उल्लेख ऊपर (विष आदि) किया गया है. मिलने पर लेकर चलते हैं उतनी पूरी का भी भोग करते हैं और बीच | आयुकर्म के निषेक पूर्ण स्थिति से पूर्व झड़ जाते हैं (घड़ी में कारणवशात् मरण भी कर जाते हैं। इसी का नाम | की चाबी की भांति)। जिसप्रकार अन्य कर्मो की उदीरणा का आगम में वर्णन है उसीप्रकार (देव. नारकी आदि भावपाहुड़ में स्पष्ट किया है अपवाद छोड़कर) आयुकर्म की भी उदीरणा हो जाती है। विष खा लेने से, वेदना से, रक्त का क्षय हो जाने | पं. दौलतराम जी का स्वर्णिम छन्द हैसे, तीव्र भय से, शस्त्राघात से, संक्लेश की अधिकता से, निज काल पाय विधि झरना तासौं निज काज न सरना। आहार और श्वासोच्छ्वास के रुक जाने से आयु का क्षय हो तप करि जो कर्म खिपावै सो ही शिवसुख दरसावै॥५॥ जाता है।" ११॥ छह.॥ धवलाकार ने पुस्तक १४ में किसी-किसी क्षुद्रभवधारी | . अपमृत्यु अनेकानेक जीवों की होती है। नारायण सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव तक को भी कदलीघात | कृष्ण, सुभौम एवं ब्रह्मदत्त चक्रवर्तीद्वय एवं अनेक अर्धचक्री (अकाल) मरण वाला निरुपित किया है महान् तार्किकविभूति | राजाओं की भी मृत्यु का उल्लेख अकालमृत्यु के रूप में आचार्य समन्तभद्र स्वामी द्वारा सम्यग्दर्शन की महिमा में | पुराणशास्त्रों में पाया जाता है। सामान्य मनुष्य और तिर्यंचों लिखा श्लोक ध्यान देने योग्य है की अकालमृत्यु तो आज साधारण बात हो गई है। जिनकी सम्यग्दर्शनशुद्धा नारक-तिर्यक्-नपुंसक-स्त्रीत्वानि। सकालता या अकालता हमारे ज्ञानगोचर नहीं है किंतु उनके दुष्कुलविकृताल्पायु दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः॥ कारण अवश्य अकाल मृत्यु के भासते हैं।। अविरत शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव भी नरक (प्रथम इसप्रकार आगम के प्रकाश में अकालमृत्यु का होना रहित), तिर्यञ्चगति, नपुंसक, स्त्री, नीचकुल, अपमृत्यु- | वास्तविक तर्कसिद्ध-न्यायसंगत, कर्म-फलानुरूपी और अल्पायु और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होते हैं। आर्षपरम्परा से मान्य सिद्ध होता है, फिर भी हमारे कुछेक राजवार्तिक में भगवान् अकलङ्कदेव की तर्कयुक्त | विद्वान् अपनी हठवादिता के कारण उक्त विषय में आचार्यप्रवर देशना यहाँ कितनी प्रासंगिक है स्वामिकार्तिकेय की गाथा को ऊँचे स्वर में प्रमुखता देते __"अप्राप्तकालस्य मरणानुपलब्धेरपवाभाव इति चेन्न, दृष्टत्वादाम्रफलादिवत्। यथा अवधारितपाककालात्प्राक् जंजस्स जम्मि देसे जेण विहाणेण तम्मि कालम्मि। सोपायोप्रक्रमे सत्याम्रफलादीनां दृष्टः पाकः तथा परिच्छिन्न को टालेदुं सक्को इंदो वा अह जिणंदो वा॥ मरणकालात् प्रागुदीरणाप्रत्यय आयुषो भवत्यपवर्तः" अर्थात्अप्राप्तकाल में मरण की उपलब्धि न होने से आयु के अर्थात्- जो जिसका जिस देश में जिसप्रकार से अपवर्तन (विनाश) का अभाव है? नहीं। जैसे पुआल आदि | जिसकाल में जन्म या मरण जिनेन्द्रदेव ने नियत रूप से के संयोग से आम आदि को समय से पूर्व ही पका दिया जाना है उसका उस देश में उसप्रकार से उसकाल में होना जाता है उसी तरह निश्चित मरणकाल से पहले भी उदीरणा | निश्चित है, उसे टालने में इन्द्र अथवा जिनेन्द्र भी समर्थ अगस्त 2007 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524319
Book TitleJinabhashita 2007 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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