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________________ होना, और १. संवेग (धर्म में अनुराग), २. निर्वेद (भोगों में अनासक्ति), ३. निन्दा (अपने दोषों को स्वीकार करना), ४. गर्दा (गुरु के समक्ष अपने दोष प्रकट करना), ५. उपशम (अनुकूल स्थितियों में हर्षोन प्रतिकूल परिस्थितियों में उद्विग्न न होना), ६. भक्ति (पंच परमेष्ठियों में अनुराग), ७. वात्सल्य (साधर्मियों से प्रीति) एवं ८. अनुकम्पा (दुःखी जीवों पर दयाभाव) ये आठ गुण होना सरागसम्यक्त्व के लक्षण हैं। इनके बिना चतुर्थगुणस्थानवर्ति-सरागसम्यक्त्व का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता।" ____ इन भावों से सम्पृक्त उपयोग सम्यक्त्वमय उपयोग है, अतएव वह शुभोपयोग है और चूँकि वह सम्यक्त्वमय है, अतः औदयिक भाव नहीं, अपितु औपशमिक, क्षायोपशमिक या क्षायिक भाव है। नि:शंकितत्व, नि:कांक्षितत्व आदि आठ गुण भी सम्यक्त्व के अंग हैं। इनसे युक्त उपयोग भी सम्यग्दर्शनोपयोग है। सम्यक्त्व के उपर्युक्त सभी गुण निर्जरा के कारण होते हैं संकाई-दोस-रहिओ णिस्संकाइ-गुण-जुयं परमं । कम्मणिज्जरणहेऊ तं सुद्धं होई सम्मत्तं ॥ ५१॥ वसुनन्दि-श्रावकाचार। २.४. 'वीतरागचारित्रलक्षणशुद्धोपयोगयुक्ताः --- सरागचारित्रलक्षणशुभोपयोगयुक्ताः --- ।' (तात्पर्यवृत्ति । प्रवचनसार/३/६०)। अनुवाद- "जिसका लक्षण वीतरागचारित्र है, उस शुद्धोपयोग से युक्त --- जिसका लक्षण सरागचारित्र है, उस शुभोपयोग से युक्त --- ।" यहाँ सरागचारित्र अर्थात् प्रमत्तसंयत एवं प्रवृत्तिरत-अप्रमत्तसंयत के महाव्रतादिरूप सम्यक्चारित्र को शुभोपयोग नाम दिया गया है। २.५. असुहादो विणिवित्ति सुहे पवित्ति य जाण चारित्तं। वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियं ॥ ४५ ॥ बृहद्र्व्यसंग्रह। अनुवाद- "अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को चारित्र जानना चाहिए। जिनेन्द्रदेव ने व्रत-समितिगुप्तिरूप शुभवृत्ति को व्यवहारनय से सम्यक्चारित्र कहा है।" इसकी व्याख्या करते हुए श्री ब्रह्मदेव लिखते हैं- "शुभोपयोगे प्रवृत्तिश्च हे शिष्य चारित्रं जानीहि। तच्चाचाराराधनादिशास्त्रोक्तप्रकारेण पञ्चसमिति-त्रिगुप्तिरूपमप्यपहृतसंयमाख्यं शुभोपयोगलक्षणं सरागचारित्राभिधानं भवति।" ___ अनुवाद- "हे शिष्य! शुभोपयोग में प्रवृत्ति को चारित्र समझो। वह 'मूलाचार', 'भगवती-आराधना' आदि चरणानुयोग के शास्त्रों में कहे हुए अनुसार पञ्चमहाव्रत, पंचसमिति और त्रिगुप्तिरूप है, तो भी उसका नाम अपहृतसंयम है और शुभोपयोगरूप है। वह सरागचारित्र कहलाता है। ___ यहाँ भी बृहद्र्व्य संग्रहकार और टीकाकार दोनों ने छठे और सातवें गुणस्थानों में होनेवाले महाव्रतादिसरागचारित्र को शुभोपयोग कहा है। २.६. “मिथ्यात्व-सासादन-मिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोगः तदनन्तरमसंयतसम्यग्दृष्टि-देशविरतप्रमत्तसंयत-गुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोगः, तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुणस्थानषट्के तारतम्येन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति भावार्थः।" (तात्पर्यवृत्ति/ प्रवचनसार/१/९)। ___अनुवाद- "मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में उत्तरोत्तर घटता हुआ अशुभोपयोग होता है, उसके बाद असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तसंयत इन तीन गुणस्थानों में क्रमशः बढ़ता हुआ शुभोपयोग होता है, तदनन्तर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय-गुणस्थान पर्यन्त छह गुणस्थानों में क्रमशः वृद्धि को प्राप्त होता हुआ शुद्धोपयोग होता है और उसके बाद सयोगिजिन एवं अयोगिजिन नामक दो गुणस्थानों में -जून-जुलाई 2007 जिनभाषित 5 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.524318
Book TitleJinabhashita 2007 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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