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________________ २.२. “इह हि दर्शनमोहनीयविपाककलुषपरिणामतः मोहः । विचित्रचारित्रमोहनीयविपाकप्रत्यये प्रीत्यप्रीती रागद्वेषौ । तस्यैव मन्दोदये विशुद्धपरिणामतः चित्तप्रसादपरिणामः । एवमिमे यस्य भावे भवन्ति, तस्यावश्यं भवति शुभोऽशुभो वा परिणामः । तत्र यत्र प्रशस्तरागश्चित्तप्रसादश्च तत्र शुभः परिणामः । यत्र मोहद्वेषावप्रशस्तरागश्च तत्राऽशुभ इति । " ( समयव्याख्या / पंचास्तिकाय / गा. १३१ ) । अनुवाद - "दर्शनमोहनीय के उदय से होनेवाला कलुष परिणाम मोह कहलाता है तथा चारित्रमोहनीय के उदय से उत्पन्न प्रीति और अप्रीति रागद्वेष कहलाते हैं । चारित्रमोहनीय के ही मन्दोदय में जो विशुद्धपरिणाम होता है, उसे चित्तप्रसाद (चित्त की निर्मलता ) कहते हैं । जिसमें ये भाव उत्पन्न होते हैं, उसके शुभ या अशुभ परिणाम अवश्य होता है । उन भावों में से जहाँ (जिस जीव में) प्रशस्तराग और चित्तप्रसाद (विशुद्धपरिणाम) होता है, वहाँ शुभपरिणाम होता है, जहाँ मोह ( मिथ्यात्व ), द्वेष और अप्रशस्तराग होता है, वहाँ अशुभ परिणाम होता है । " इस विवेचन में मिथ्यात्व (मोह) को अशुभ परिणाम कहा गया है, जिससे यह स्वत: सिद्ध है कि सम्यक्त्व शुभपरिणाम अर्थात् शुभोपयोग के रूप में विवक्षित है। २.३. 'व्यवहारनयः पुनः प्रयोजनवान् भवति । केषाम् ? ये पुरुषाः पुनः अपरमे अशुद्धे असंयतसम्यदृष्ट्यपेक्षया श्रावकापेक्षया वा सरागसम्यग्दृष्टि-लक्षणे शुभोपयोगे प्रमत्ताप्रमत्तसंयतापेक्षया च भेदरत्नत्रयलक्षणे वा स्थिताः तेषामिति भावार्थ:।' (तात्पर्यवृत्ति / समयसार / गा. १२) । --- अनुवाद'और व्यवहारनय प्रयोजनवान् होता है । किनके लिए ? जो पुरुष अपरमभाव अर्थात् अशुद्ध अवस्था में- असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा श्रावक की अपेक्षा सरागसम्यग्दर्शनरूप शुभोपयोग में तथा प्रमत्तसंयत एवं अप्रमत्तसंयत की अपेक्षा भेदरत्नत्रयरूप शुभोपयोग में स्थित होते हैं, उनके लिए।" यहाँ आचार्य जिनसेन ने असंयतसम्यग्दृष्टि एवं संयतासंयत के सम्यग्दर्शन को, जो कि सराग होता है शुभोपयोग कहा है तथा प्रमत्तसंयत एवं अप्रमत्तसंयत के भेदरत्नत्रय को 'शुभोपयोग' शब्द से अभिहित किया है। भेदरत्नत्रय में सम्यग्दर्शन भी शामिल है, अतः उसे भी 'शुभोपयोग' शब्द से अभिहित किया गया है, यह स्वतः सिद्ध है। यहाँ इन चारों गुणस्थानों में होनेवाले सम्यग्दर्शनमात्र को शुभोपयोग कहा है, इससे यह भी सिद्ध है कि इन गुणस्थानों में होनेवाला सम्यग्दर्शन चाहे औपशमिक हो, क्षायोपशमिक हो या क्षायिक हो, शुभोपयोग ही है, क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन भी यहाँ सराग ही होता है। सरागसम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व की अभिव्यक्ति निम्नलिखित दोषों के अभाव और गुणों के सद्भाव से होती है। ये सरागसम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व के लक्षण हैं। इनके बिना सम्यक्त्व का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकता, जैसा कि आचार्य जयसेन ने कहा है 'केवलज्ञानाद्यनन्तगुणसहितपरमात्मोपादेयत्वे सति वीतरागसर्वज्ञप्रणीतषद्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय - सप्ततत्त्वनवपदार्थरुचिरूपस्य मूढत्रयादिपञ्चविंशतिदोषरहितस्य संवेओ णिव्वेओ णिंदा गरुहा य उवसमो भत्ती । वच्छल्लं अणुकंपा गुणट्ठ सम्मत्तजुत्तस्स ॥ (वसुनन्दि-श्रावकाचार / ४९) । इति गाथाकथितलक्षणस्य चतुर्थगुणस्थानवर्ति - सरागसम्यक्त्वस्यान्यथानुपपत्तेरिति हेतुः । (तात्पर्यवृत्ति / समयसार / गा. १७७ - १७८ ) । अनुवाद - "केवलज्ञानादि-अनन्तगुण-सहित परमात्मा को ही उपादेय मानना, वीतरागसर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट छह द्रव्यों, पाँच अस्तिकायों, सात तत्त्वों और नौ पदार्थों में श्रद्धा होना, तीन मूढ़ता आदि पच्चीस दोषों का अभाव " 4 जून - जुलाई 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524318
Book TitleJinabhashita 2007 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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