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________________ १. चतुर्थ से सप्तम गुणस्थान औपशमकादिभावों से निष्पन्न गोम्मटसार-जीवकाण्ड में कहा गया है मिच्छे खलु ओदइयो बिदिए पुण पारिणामिओ भावो। मिस्से खओवसमिओ अविरदसम्मम्मि तिण्णेव॥११॥ एदे भावा णियमा दंसणमोहं पडुच्च भणिदा दु। चारित्तं णत्थि जदो अविरद अंतेसु ठाणेसु।। १२॥ देसविरदे पमत्ते इदरे य खओवसमिय भावो दु। सो खलु चरित्तमोहं पडुच्च भणियं तहा उवरि १३॥ तत्तो उवरिं उवसमभावो उवसामगेसु खवगेसु। खइओ भावो णियमा अजोगिचरमो त्ति सिद्धे य॥१४॥ अनुवाद- “मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में औदयिकभाव होता है, सासादनसम्यग्दृष्टि-गुणस्थान में पारिणामिकभाव, सम्यग्मिथ्यादृष्टि-गुणस्थान में क्षायोपशमिकभाव तथा अविरतसम्यग्दृष्टि-गुणस्थान में औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यग्दर्शनों की अपेक्षा औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक तीनों भाव होते हैं। ये भाव नियम से दर्शनमोह की अपेक्षा कहे गये हैं, क्योंकि अविरत-सम्यग्दृष्टि-पर्यन्त चार गुणस्थानों में चारित्र नहीं होता।" (११-१२)। __“देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में क्षायोपशमिकभाव होता है, क्योंकि देशविरतगुणस्थान अप्रत्याख्यानावरण-कषायों के क्षयोपशम से तथा शेष दो प्रत्याख्यानावरण-कषायचतुष्क के क्ष होते हैं। ये भाव तथा ऊपर के गुणस्थानों के भाव चारित्रमोह की अपेक्षा कहे गये हैं।" (१३)। "अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान से ऊपर उपशमकश्रेणी-सम्बन्धी अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानों में औपशमिकभाव होता है, क्योंकि इनमें होनेवाला संयम चारित्रमोह के उपशम से होता है। तथा क्षपकश्रेणीसम्बन्धी अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानों में और सयोगिकेवली-अयोगिकेवली इन दो गुणस्थानों में क्षायिकभाव होता है, क्योंकि इनमें होनेवाला चारित्र चारित्रमोह के क्षय से होता है। सिद्धपरमेष्ठी में भी क्षायिकभाव होता है।" (१४)। धवलाटीका (ष.खं./ पु.१ / १, १, १२ तथा १४ / पृष्ठ १७३ तथा १७५-१७६) में भी उपर्युक्त गुणस्थान उपर्युक्त भावों से ही उत्पन्न बतलाये गये हैं। तत्त्वार्थसूत्र में भी सम्यक्त्व और चारित्र (संयम) को औपशमिक (२/३), क्षायोपशमिक (२/५) एवं क्षायिक भाव (२/४) तथा संयमासंयम को क्षायोपशमिक भाव प्ररूपित किया गया है। २. असंयतसम्यग्दृष्टि आदि के सम्यक्त्वादि-परिणाम शुभोपयोग आगम में असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत एवं प्रवृत्तिरत-अप्रमत्तसंयत जीवों के सम्यक्त्व, संयमासंयम एवं संयम परिणाम को, जो औपशमिक, क्षायोपामिक और क्षायिक भाव हैं, शुभोपयोग संज्ञा दी गयी है। यथा २.१. "--- परमभट्टारक-महादेवाधिदेव-परमेश्वराहत्सिद्ध-साधु-श्रद्धाने --- प्रवृत्तः शुभ उपयोगः।" | (तत्त्वदीपिकावृत्ति / प्रवचनसार । १ / ६४)। . अनुवाद- "परमभट्टारक, महादेवाधिदेव, परमेश्वर अरहन्त, सिद्ध और साधुओं के श्रद्धान में प्रवृत्त उपयोग शुभोपयोग है।" __ यहाँ श्रद्धान अर्थात् सम्यक्त्व में प्रवृत्त उपयोग को शुभोपयोग कहा गया है। जून-जुलाई 2007 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524318
Book TitleJinabhashita 2007 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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