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________________ शुद्धोपयोग का केवलज्ञानरूप फल होता है। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि आगम में चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें (प्रवृत्तिपरक भाग) गुणस्थानों में होनेवाले सम्यग्दर्शन, संयमासंयम (सराग देशचारित्र) एवं सरागसंयम (सरागचारित्र) को शुभोपयोग कहा गया है। ३. उक्त गुणस्थानों में उक्त भाव शुभोपयोग ही क्यों आगम में बंध और मुक्ति के कारणभूत तीन ही उपयोग बतलाये गये है : अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग। उपर्युक्त सम्यग्दर्शन, संयमासंयम और सरागसंयम अशुभोपयोग नहीं हैं, यह निर्विवाद है। और ये शुद्धोपयोग हो नहीं सकते, क्योंकि आगम में अभेदरत्नत्रय या निश्चयरत्नत्रय को शुद्धोपयोग कहा गया है और उसकी उत्पत्ति भेदरत्नत्रय या व्यवहाररत्नत्रय से बतलायी गयी है। (देखिए, 'जिनभाषित' मई, २००७, सम्पादकीय'निश्चयरत्नत्रय का नाम शुद्धोपयोग')। असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत (देशविरत) नामक चौथे-पाँचवें गुणस्थानों में महाव्रतादिरूप सम्यक्चारित्र न होने से व्यवहाररत्नत्रय नहीं होता, अतः व्यवहाररत्नत्रयरूप कारण के अभाव में निश्चयरत्नत्रयात्मक शुद्धोपयोगरूप कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। तथा प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान में व्यवहाररत्नत्रय होता है, तथापि प्रमाद का सद्भाव एवं संज्वलनकषाय का तीव्रोदय होने से तथा अप्रमत्तसंयत-गुणस्थान में कदाचित् संज्वलन कषाय के तीव्रोदय से त्रिगुप्ति संभव नहीं होती, जिससे वीतरागचारित्र संभव नहीं होता। इसलिए छठे गुणस्थान में और सातवें गुणस्थान के प्रवृत्तिपरक भाग में निश्चयरत्नत्रयरूप शुद्धोपयोग की उत्पत्ति नहीं हो सकती। फलस्वरूप उपर्युक्त गुणस्थानों में उत्पन्न सम्यग्दर्शन, संयमासंयम और संयम शुद्धोपयोग नहीं हो सकते। अतः अन्यथानुपपत्ति न्याय से सिद्ध होता है कि उक्त सम्यग्दर्शनादि भाव शुभोपयोग ही हैं। उपर्युक्त कारणों से उक्त गुणस्थानों में होनेवाला क्षायिक सम्यग्दर्शन भी शुभोपयोग ही है। सम्यग्दर्शन के साथ 'क्षायिक' शब्द जुड़ा होने से इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए कि वह शुद्धोपयोग है, क्योंकि जिन गुणस्थानों में शुद्धोपयोगोत्पत्ति की कारणसामग्री ही नहीं होती, उनमें उत्पन्न होने वाला क्षायिकसम्यग्दर्शन शुद्धोपयोग कदापि नहीं हो सकता। उक्त गुणस्थान सराग होते हैं, इसलिए उनमें उत्पन्न हुआ क्षायिकसम्यग्दर्शन भी सराग होता है, अतः सराग होने से उसे व्यवहारसम्यग्दर्शन ही कहा गया है, निश्चयसम्यग्दर्शन नहीं। जब उसके साथ वीतराग अवस्था जुड़ जाती है, तब वह निश्चयसम्यग्दर्शन कहलाने लगता है। इसमें निम्नलिखित वचन प्रमाण हैं "प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सरागसम्यक्त्वं भण्यत। तदेव व्यवहारसम्यक्त्वमिति। तस्य विषयभूतानि षड्द्रव्याणीति। वीतरागसम्यक्त्वं निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं वीतरागचारित्राविनाभूतं तदेव निश्चयसम्यक्त्वमिति। अत्राह प्रभाकरमट्टः-निजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं भवतीति बहुधा व्याख्यातं पूर्वं भवद्भिः, इदानीं पुनः वीतरागचारित्राविनाभूतं निश्चयसम्यक्त्वं व्याख्यातमिति पूर्वापरविरोधः कस्मादिति चेत्? निजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं गृहस्थावस्थायां तीर्थकरपरमदेवभरतसगररामपाण्डवादीनां विद्यते, न च तेषां वीतरागचारित्रमस्तीति परस्पविरोधः, अस्ति चेत्तर्हि तेषामसंयतत्वं कथमिति पूर्वपक्षः। तत्र परिहारमाहतेषां शुद्धात्मोपादेयभावनारूपं निश्चयसम्यक्त्वं विद्यते, परं किंतु चारित्रमोहोदयेन स्थिरता नास्ति व्रतप्रतिज्ञाभङ्गो भवतीति तेन कारणेनासंयता वा भण्यन्ते। शुद्धात्मभावनाच्युताः सन्तः भरतादयो निर्दोषिपरमात्मनामर्हत्सिद्धानां गुणस्तव-वस्तुस्तव-रूपस्तवनादिकं कुर्वन्ति तच्चरितपुराणादिकं च समाकर्णयन्ति, तदाराधकपुरुषाणामाचार्योपाध्यायसाधूनां विषयकषादानवञ्चनार्थं संसारस्थितिच्छेदनार्थं च दानपूजादिकं कुर्वन्ति तेन कारणेन सम्यक्त्वस्य निश्चयसम्यक्त्वसंज्ञा वीतरागचारित्राविनाभूतस्य निश्चसम्यक्त्वस्य परम्परया साधकत्वादिति। वस्तुवृत्त्या तु तत्सम्यक्त्वं सरागसम्यक्त्वाख्यं व्यवहारसम्यक्त्वमेवेति भावार्थः।" (ब्रह्मदेवटीका / परमात्मप्रकाश / २ / १७)। 6 जून-जुलाई 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524318
Book TitleJinabhashita 2007 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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