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________________ । चाहिए। जैनी बनाने की आगम में विधि है किन्तु हम हैं कि और टूट-फूट करते जा रहे हैं। अल्पसंख्यक स्वयं में हैं और उसमें भी टूट-फूट ? सकते हैं, पंथ नहीं।' पत्र/संपादक भी बँटे हुए हैं। पंथवाद का इतना आग्रह है कि ढाई घंटे कहने (समझाने) के बाद भी टस से मस नहीं होते। आज तो लोग पंथाग्रह के कारण ६. हम साधर्मी बन्धुओं का सहयोग कैसे कर सकते सच्चे देव, शास्त्र और गुरु पर भी विश्वास नहीं कर रहे हैं ? हैं । उत्तर- सौ संतान के बराबर एक वृक्ष होता है। वृक्ष के पास कई पथिक आयेंगे और आक्सीजन ग्रहण करेंगे ? वृक्ष निष्पक्ष भाव से सभी को आक्सीजन आदि की सुविधा देता है इसीतरह हम सभी साधर्मी बन्धुओं के सहयोग के लिए आगे आयें। हम विषय कषायों के पोषण में लाखों रुपये खर्च करते हैं लेकिन साधर्मी के सरंक्षण एवं उत्थान में एक 'पैसा भी खर्च नहीं करते। इस विषय में हमें सिंधी एवं पंजाबी समाज का अनुकरण करना चाहिए। हमारे यहाँ आहारदान, औषधिदान आदि के साथ आश्रयदान की भी बात कही गई है। जिस ओर विद्वानों को समाज का ध्यान रहे हैं, बनाये जा रहे हैं? आकर्षित करना चाहिए। हमें जैन आचार संहिता बना लेना चाहिए। आज लोगों को समानता चाहिए, सम्मान चाहिए । विजातीय विवाह के संबंध में पूछे जाने पर आचार्य श्री ने कहा कि जिस लड़की को आप अपना रहे हैं उसे आत्मसात् कर रहे हैं या नहीं? वह भी हमें आत्मसात् कर रही है या नहीं? इस प्रक्रिया में हमें ध्यान रखना चाहिए कि समाज में क्षोभ न हो। खण्डेलवाल जैन जाति के इतिहास में डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल ने जिसप्रकार गोत्रोत्पत्ति के विषय में लिखा है उससे पता चलता है कि समाज ने आत्मसात् किया है। पहले गुरुकुलों में समाज व्यवस्था लागू थी। पहले बच्चे को प्रवेश करा देते थे फिर उनमें नियम और संस्कार देते थे। इस प्रक्रिया के लिए हमें सामाजिक वातावरण बनाना होगा। दक्षिण में जैन बनाने धर्म का प्रकाश करना मार्ग प्रभावना | की विधि, संस्कार आज भी हैं । ७. आचार्य श्री ! सप्त परम स्थान दीक्षा के लिए जरूरी कहें? हैं ? उत्तर- जिसे अपनाया जा रहा है उसे आत्मसात् करना है हमारे यहाँ शास्त्रों में द्विज बनाने की प्रक्रिया है । शास्त्रों में जैन ब्राह्मण का उल्लेख आया है। जैन ब्राह्मण क्या होता है? इसे आप लोग समझें । ८. पंथवाद को कैसे रोकें? उत्तर- धर्म से पंथ का कोई नाता नहीं लेकिन व्यक्ति अड़े हुए हैं और बिना चले चला रहे हैं। हमारे लिए आगम ही पंथ है। आज स्थिति यह हो गई है कि 'हम धर्म छोड़ ९. हमारे यहाँ आयोजनों (पंचकल्याणकों) की अधिकता हो रही है जिससे धन का अपव्यय हो रहा I अभी जयपुर में ही अनेक बड़े आयोजन एक ही तिथियों में एक जैसे हुए? उत्तर- जयपुर भी तो बड़ा है ? आयोजनों को भी करना है, उन्हीं तिथियों में करना है और प्रतिस्पर्धा भी है जो उपयोग होना चाहिए था वह नहीं हो रहा है। उपयोग सही होना चाहिए। १०. एक आचार्य के संघ में अनेक आचार्य बन Jain Education International उत्तर- इस विषय में हम अपने विचार पूर्व में ही बता चुके हैं। पूर्व में कुछ आचार संहितायें भी बनी हैं। ११. क्या विदेशों में दिगम्बर जैन धर्म का प्रचार नहीं हो सकता? उत्तर- हमारे आचार्यों ने इस विषय में दिशा निर्देश दिये हैं। कहा है कि आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रय तेजसा सततमेव । दान तपो जिनपूजा विद्यातिशयैश्च जिनधर्मः ॥ सर्वार्थसिद्धि में भी आचार्य पूज्यपाद ने मार्ग प्रभावना का स्वरूप बताया है है ? ज्ञानतपोदानजिनपूजाविधिनाधर्मप्रकाशनंमार्गप्रभावना । अर्थात् ज्ञान, तप, दान और जिन पूजा इनके द्वारा १२. आचार्य श्री, हम आपकी रचनाओं में श्रेष्ठ किसे उत्तर (हँसकर) इस रचना में रच... ना । १३. क्या श्रमण परम्परा वैदिक परम्परा से प्राचीन उत्तर- चिंतन करो । श्रमण परम्परा और वैदिक परम्परा अलग-अलग हैं। अथर्ववेद के १५ वें व्रात्यकाण्ड में श्रमणों का वर्णन है लेकिन वैदिकों ने इसकी टीका ही नहीं लिखी । सायण ने भाष्य नहीं लिखा। आप लोग प्रमाद छोड़कर इस दिशा में कार्य करें। १४. व्यापार में जैन, जैनाचार के विरुद्ध कार्य कर जून - जुलाई 2007 जिनभाषित 47 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524318
Book TitleJinabhashita 2007 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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