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जीवधर्म के प्रर्वतक भगवान् वृषभदेव (आदिनाथ)
पं. अनन्तबल्ले, जैनदर्शनाचार्य शीर्षक पढ़कर पाठकों को अजीब सा लग सकता । है कि, छान्दोग्योपनिषद में एक कथा आती है कि "ब्राह्मण है कि, जैन धर्म की जगह जीव धर्म कहाँ से आया? इसमें | गौतम ऋषि विद्या सीखने के लिए क्षत्रिय जैबिली के पास अजीब लगने की कोई बात नहीं है। मेरे अभिप्राय से जैन | गये तब जैबिली ने कहा, 'ब्रह्म मतलब ज्ञान यह विद्या धर्म यह नाम अर्वाचीन लगता है। यद्यपि कन्दकन्दाचार्य | ब्राह्मणों को नहीं आई अर्थात यह विद्या दष्प्राप्त है उसका के साहित्य में 'जोण्ह' शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका | अधिकारी और उत्पादक क्षत्रिय है' देखेंअर्थ टीकाकारों ने 'जैन' ऐसा किया है तो भी यह धर्म
न प्राकृत्वत्तः पुरा विद्या ब्राह्मणान् ग्रच्छति। . के लिए उपयुक्त हुआ नहीं लगता है। 'जीव धर्म' ऐसा
तस्मात्तु सर्वेषु लोकेषु क्षत्रस्यैव प्रशासनमभूत ॥ मैंने अपनी तरफ से नहीं लिखा है, यह तो भूवलय ग्रंथ
(छान्दोग्योपनिषद)" के प्रणेता आचार्य श्री कुमुदेन्दु द्वारा भूवलय के मंगलाचरण
इससे स्पष्ट हो जाता है कि विद्या (ज्ञान) के में लिखा गया है और उसी को मैंने ज्यों का त्यों लिया | उत्पादक जैन हैं और इसकी उत्पत्ति भगवान ऋषभदेव है। ‘जीव धर्म' से तात्पर्य मेरे अभिप्राय से यह है कि, | से हुई है। ऐसा ही एक और प्रसंग पृष्ठ २८-२९ पर बताया जीव सब वस्तओं में प्रधान है: इस धर्म के आचरण से | गया है कि, 'उपनिषदों में एक कथा आती है-एक समय सभी जीव अपना कल्याण कर सकते हैं, द:खों से मुक्त | ब्राह्मण वंशी नारद, आत्म विद्या सीखने के लिए राजा हो सकते हैं। यह धर्म किसी जाति, पंथ के लिए सीमित
| सनत्कुमार के दरबार में गये। उस समय नारद कहते हैं नहीं है बल्कि जीव मात्र का धर्म है। कोई विद्वान् इस विषय | कि मैं वैदिक विद्या में पारंगत है लेकिन मैं अपने ज्ञान पर विशद चर्चा करें तो अच्छा रहेगा, मैंने संक्षेप में अपना को परिपूर्ण नहीं समझता क्योंकि कुरू, पांचाल आर्यों की विचार व्यक्त किया है। इसी जीव धर्म का उपदेश युग अपर विद्या और वैदिक ज्ञान भिन्न है। आर्यों की आत्म के आदि में भगवान आदिब्रह्म वृषभदेव ने उपदेश दिया | विद्या अथवा पर विद्या में मैं बिल्कुल अनभिज्ञ हूँ। आत्म था और तब से लेकर यह धर्म असंख्य जीवों का कल्याण
| विद्या में वैदिक यज्ञ कांड का निषेध किया है क्योंकि "जीव करते आया है और वर्तमान के इस भौतिक यग में इसकी | के आत्मोन्नति में यज्ञ बाधक है" (याज्ञवल्क्य) बहुत ही जरूरत है। आइए अब आगे चलते हैं, भगवान्
स्पष्ट है कि भगवान् ऋषभदेव कि 'आत्मविद्या' वृषभदेव के इतिहास की ओर। वैसे तो भगवान् वृषभदेव | ही आत्मोन्नति में सहायक है और जो जीव उसका आचारण पर बहुत से लेख पढ़ने को मिले हैं लेकिन मैं जिस विषय |
| करता है वह परमात्मा पद को प्राप्त कर लेता है। वैदिक को प्रस्तुत करना चाहता हूँ वह कुछ अलग है। एक कीर्तन | साहित्य में आत्मविद्या की श्रेष्ठता को पढ़कर किस जैन सम्राट तात्या चोपडे करके विद्वान हये हैं, उनकी अनेक | को खुशी नहीं होगी; जैन दर्शन की श्रेष्ठता हमारे मस्तक पुस्तकों में भगवान् वृषभदेव चरित्र (दो भागों में) एक
को ऊँचा किये बिना नहीं रहेगा। पुस्तक है, इसका मात्र पहला भाग उपलब्ध है और वह आगे पृष्ठ ५५ पर भगवान् ऋषभदेव मत्स्यद्रनाथ भी जीर्ण-शीर्ण है। इसलिए मैंने मराठी से हिन्दी में भाषांतर | इन दोनों के संबंध पर प्रकाश डाला गया है। वे लिखते करवाया है और इसी भाषांतर के आधार पर यह लेख लिख | हैं- “भगवान् ऋषभदेव ने जिस समय दीक्षा ली उस समय रहा हूँ, मतलब पृष्ठ संख्या आदि सब इसके अनुसार है। चार हजार राजा लोगों ने दीक्षा ली थी, लेकिन भगवान् अब आगे बढ़ते हैं हमारे पूज्य आदर्श भगवान् ऋषभदेव | ऋषभदेव जैसे उनको भूख आदि परिषह सहन नहीं हुये की ओर।
इसलिए उन्होंने भगवान् ऋषभदेव को छोड़ दिया और भगवान् ऋषभदेव के ब्रह्मविद्या (ज्ञान) के बारे में | अलग-सा ही पंथ निकाला और वही यह नाथ पंथ है। चर्चा करते हये चौपड़े साहब बताते हैं कि विद्या के | यह नाथ पंथ का इतिहास हिन्दू धार्मियों ने निम्न रीति से अधिकारी और उत्पादक क्षत्रिय हैं। यह तो निश्चित है कि | दिया है, 'अत्यंत प्राचीन काल में नौ-नारायण अस्तित्व मूलतः क्षत्रिय जैन थे और क्षत्रियों के आदि पुरुष आदि में थे। लक्ष्मी पति ने (विष्णु ने) इन नौ नारायणों का अवतार ब्रह्मा भगवान् ऋषभदेव हैं। पृष्ठ ११-१२ से पता चलता | लेकर उन्हें मृत्यु लोक में सृष्टि का संहार करने के लिए
जून-जुलाई 2007 जिनभाषित 31
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