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________________ कहा । इसीतरह उन्होंने अवतार लिया। इन नाथों में मत्येंद्रनाथ । हिन्दुओं के प्रत्येक अवतारी पुरूषों के गुरूआदि नाथ ही और उनके शिष्य गोरखनाथ प्रसिद्ध है। इन नव नाथों में | ठहरते हैं। इस विषय में ज्ञानेश्वर महाराज क्या कहते हैं जगदुद्धार का काम किया' (देशमुख कृत क्षत्रियों का | देखिये- "आदिनाथ गुरु सकल सिद्धाचा, मत्स्येंद्र तयाचा इतिहास पृष्ठ २२८)। इस प्रकार सच्चाई देशमुख जी ने | मुख्य शिष्य ॥ मत्सेंद्राने बोध गोरखासी केला: गोरक्ष ओकला अपने क्षत्रियों का इतिहास में दिया है इस पर से नवनाथ | गहिनीप्रती ॥ गहिनी प्रसादें निवृत्ति दानार ॥ ज्ञानदेवा पंथ और उनके मुख्य प्रचारक मत्स्येंद्रनाथ और उनके शिष्य | योजविलें॥" इसीप्रकार "आदिनाथं च मत्सेंद्रगोरक्षं गहिनी गोरखनाथ, जालंधरनाथ इत्यादिकों का संबंध जैन धर्म से | तथा ॥ निवृत्तिं ज्ञाननाथं च भूयो भूयो नमाम्यहम्॥'' इसप्रकार है यह देखें से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि आदिनाथ इन नवनाथों का इतिहास का प्रारंभ 'अत्यंत प्राचीन | भगवान् मत्सेंद्रनाथ के गुरु हैं और स्वयं ज्ञानेश्वर महाराज काल में ऐसा कहा है और इनका संबंध नौ नारायणों से भी आदिनाथ भगवान् से ही अपनी गुरु परम्परा बताते हैं। जोड़ा है। इन नौ नाथों को प्राचीनकाल के नौ नारायणों | आगे वे बताते हैं कि 'इसीप्रकार साधु नुकोबा की गुरु का अवतार माना जाता है। अत्यंत प्राचीनकाल का मतलब परम्परा आदिनाथ प्रभु से ही है। तुकोबाजी के गुरु बाबा जैन धर्म के अलावा किसी का नहीं हो सकता और दूसरी | चैतन्य अपने गुरु आदिनाथ प्रभु होने का बताया है (देशमुख बात यह कि, नौ नारायण ये जैन धर्म को छोड़कर अन्यत्र | कृत क्षत्रियों का इतिहास पृष्ठ २१६ देखिए)' कहीं पर हुये हैं ऐसा कहीं भी सुनने में नहीं आता है। इसीप्रकार आद्यशंकराचार्य की गुरु परंपरा भगवान् कृष्ण और बलराम ये नारायण-प्रतिनारायण दोनों जैन धर्म | आदिनाथ से प्रारंभ होती है। पृष्ठ ५९ पर चौपड़े लिखते में हये हैं। यानि नाथ पंथ का उद्गम भी जैन धर्म से ही | हैं, "देखिए- (देशमुखकृत क्षत्रियों का इतिहास पृष्ठ २१९) हुआ है ऐसा सिद्ध होता है। भगवान ऋषभदेव के दीक्षा | और (भारत इ.स.म.स.पू.६६)"गोसावी संप्रदाय के प्रवर्तक काल से इसका संबंध आता है।" जो आद्यशंकराचार्य थे उनके गुरु गोविंदनाथ, उनके गुरु पृ.56 की टिप्पणी में कहा है-'देशमुखकृत क्षत्रियों | गौउपाद, इनके गुरु विष्णुदेव इसप्रकार बीच में चालीस का इतिहास' इसमें देखें- “नाथों में से विरक्त ऐसे हमेशा | गुरुओं के पश्चात् सदाशिव आते हैं उनके गुरु आदिशक्ति भ्रमण करने वाले विरागी महात्माओं को यति कहते हैं, | और बाद में उनके आद्य गुरु श्री आदिनाथ' (वृषभदेव) इस पर से 'यति' यह शब्द जैन धर्म का ही है।' 'सेतु | हैं" यह बात विशेष महत्त्वपूर्ण लगती है कि खुद बंध रामेश्वर में मारूति और मत्स्येंद्रनाथ इनके भाषण हुये | आद्यशंकराचार्य की गुरु परंपरा भी भगवान् आदिनाथ से थे। उसमें मत्स्येंद्रनाथ ने मैं 'यति' हूँ ऐसा कहा था। | प्रारंभ होती है। क्या वर्तमान के विद्वान् इसप्रकार से विशेष (मालुकविक्रत- नवनाथ कथा देखें)'। इस प्रसंग में पृष्ठ | छान-बीन नहीं कर सकते। अन्वेषणा करने पर और भी ५६ पर जो 'नाथ' शब्द की उत्पत्ति बताया है वह भी ध्यान | जैन धर्म के इतिहास को पुष्टी देनेवाली जानदार बाते मिल योग्य है। चौपड़े लिखते हैं,- 'नाथ' यह शब्द दो शब्दों | सकती हैं। गरज है इच्छा और लगन की। पृ.६० पर लिखा के मेल से बना है। न + अथ= नाथ- ऐसा यह शब्द बनता | है कि, नाथ पंथ के इतिहास में देखमुख कहते हैं कि,है। यह नाथ शब्द स्वतंत्र नहीं है। 'न' मतलब नहीं और नाथ पंथ के लोग,- बोलो हर हर महादेव कहते हैं" और 'अथ' मतलब आदि (प्रारंभ)- मतलब 'न + अथ'= नाथ परस्पर मिलते समय 'आदीश' कहकर आलिगंन देते हैं। यानी जिसका आदि (प्रारंभ) नहीं अर्थात् 'अनादि' ऐसा | | इस आदीश का संबंध यद्यपि देखमुखजी कहते हैं कि यह नाथ शब्द का अर्थ व्युत्पत्ति के अनुसार होता है। इसप्रकार | शिवस्मरण में कहा जाता है फिर भी यह उनका कहना से व्युत्पात्त्यर्थ पर से भी इस नाथ शब्द का प्राचीनत्व सिद्ध | सही नहीं है। कारण, आदि + ईश = आदीश मतलब इसका होता है। 'नाथ' यह उपपद उनके नाम के आगे लगाना | अर्थ आदिनाथ ऐसा ही होता है। इसमें शिवजी का क्या उपयुक्त होगा, जो महात्मा अनादि है अथवा जिनका धर्म | संबंध है!...' इसी पृष्ठ की टिप्पणी में लिखा है कि, अनादि है।'' इससे तो लगभग यह निश्चित हो जाता है | मायामत्सेंद्रनाथ या बोलपट में दृश्य २७ वाँ देखिए-इसमें कि मत्स्येंद्रनाथ का संबंध भगवान् ऋषभदेव से है। आगे | गोरखनाथ और मत्सेंद्र के दूसरे एक शिष्य इन दोनों के पृष्ठ ५८ पर चौपड़े बताते हैं कि- 'मत्स्येंद्रनाथ के गुरु | मिलन के समय वे परस्पर "जय आदीश' (आदिनाथ) जिसप्रकार भगवान् ऋषभदेव नाथ सिद्ध होते हैं उसीप्रकार | कहकर हाथ जोड़कर बैठते हैं, इस पर से प्राचीनकाल 32 जून-जुलाई 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524318
Book TitleJinabhashita 2007 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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