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अर्थ- नैवेद्य समर्पण करना, अभिषेक करना, तीनों सन्ध्याओं में तीन जगत के स्वामी जिनेन्द्रदेव की पूजा करना, अभिषेक करना आदि भी पूजन के ही अंतर्गत हैं (५) श्री सागारधर्मामृत में इस प्रकार कहा है
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भक्त्या ग्रामगृहादि शासन विद्या दानं त्रिसन्ध्याश्रया । सेवा स्वेऽपि गृहेर्चनं च यमिनां नित्य प्रदानानुगम् ॥ २ / २५ ॥
अर्थ- शास्त्रोक्त विधि से गाँव, घर, दुकान आदि का दान देना, अपने घर में भी अरिहंत की तीनों संध्याओं में की जाने वाली सेवा तथा मुनियों को भी नित्य आहार दान देना है बाद में जिसके, ऐसी पूजा नित्यमह पूजा की गई है ॥२/२५ ॥
(६) श्री वसुन्नदि श्रावकाचार में इस प्रकार कहा हैरत्तिं जग्गज पुणो तिसटिट् सलाय पुरिससुकहाहिं । संघेण समं पुणो वि कुज्जा पहायम्मि ॥ ४२२ ॥ एवं चत्तारि विणाणि जाव कुज्जा तिसंझ जिणपूजा । नेत्तुम्मीलगणपुज्जं चउत्थण्हवणं तओ कुज्जा ॥४२३॥ अर्थ - पुनः संघ के साथ तिरेसठ शलाका पुरुषों की सुकथालापों से रात्रि को जगे अर्थात् रात्रि जागरण करें और प्रातः काल संघ के साथ पूजन करें ॥ ४२२ ॥ इस प्रकार चार दिन तक तीनों सन्ध्या में जिन पूजन करे । तत्पश्चात् नेत्रोन्मीलन पूजन और चतुर्थ अभिषेक करें ॥ ४२३ ॥
(७) श्री गुण. श्रावकाचार में इस प्रकार कहा स्मुत्वानंतगुणोपेतं जिनं सन्ध्यात्रयेऽर्चयेत् ।
वंदना क्रियते भक्त्या तद्भावार्चनमुच्यते ॥ २२५ ॥ अर्थ :- अनंत गुणों के स्वामी जिनेन्द्र भगवान् का स्मरण करते हुए, तीनों संध्याओं में उनकी जो पूजा, वंदना भक्ति सहित की जाती है, उसे भाव पूजा कहते हैं । (८) श्री प्रश्नोत्तर श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है:
त्रिकालं-जिननाथान् ये, पूजयंति नरोत्तमाः । लोकत्रयभवं शर्म, भुक्त्वा यांति परं पदम् ॥ २१० ॥ अर्थ- जो उत्तम पुरुष सवेरे, दोपहर और शाम तीनों समय भगवान् जिनेन्द्र देव की पूजा करते हैं। वे तीनों लोकों में उत्पन्न होने वाले, समस्त भोगों को भोगकर मोक्ष पद में जा विराजमान होते हैं।
(९) श्री गुणभूषण श्रावकाचार में इस प्रकार कहा हैप्रातः पुनः शुचीभूय निर्माप्याप्ताआदि पूजनम् । सोत्साहस्तदहोरात्रं सद्ध्यानाध्ययनैर्नयेत् ॥ ६५ ॥ अर्थ- पुनः प्रातःकाल पवित्र होकर देव शास्त्र गुरु
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आदि का पूजन करके उत्साह के साथ उत्तम ध्यान और अध्ययन करते हुये उस दिन और रात्रि को बिताये ।
(यहाँ प्रातः काल पूजन करना कहा गया है और रात्रि को ध्यान एवं अध्ययन करने का विधान किया है) (१०) श्री पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में इस प्रकार कहा है
प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा तात्कालिकं क्रियाकल्पम् । निर्वतयेद्ययोक्तं, जिनपूजां प्रासुकैर्द्रव्यैः ॥ १५५ ॥ अर्थ - पुनः प्रातः काल उठकर और तात्कालिक कलाप को करके प्रासुक द्रव्यों के द्वारा आगमोक्त विधि से जिनदेव की पूजन करे ।
क्रिया
(११) किशनसिंहकृत क्रियाकोष में इस प्रकार कहा हैपूर्वान्हिक पूजा जो करेह, वसुदरब मनोहर करि धरे । मध्यान्ह पूज समए सु एह, मनु हरण कुसुम बहु पेखि देह । ३८ । अपरान्ह भविक जन करिह एव, दीपहि चढ़ाय बहु धूप खेव । हि विधि पूजा करि तीन काल, शुभकंठ उचारिय जयह माल । ३९ ।
अर्थ- जो प्रातःकाल पूजा करता है वह अष्टद्रव्य मनोहर लेकर करता है । मध्यान्ह मे बहुत से मनोहर फलों से करता है। शाम को भव्यजन दीपक चढ़ाकर और धूप खेकर पूजा करते हैं। इस प्रकार तीनों कालों में पूजा करके अच्छे कंठ से भगवान् के गुणों का गान करना चाहिए। (नोट- रात्रि में पूजा करना नहीं लिखा है)
(१२) श्री श्रावकाचार सारोद्धार में इस प्रकार कहा है
प्रातरुत्थाय संशुद्धकायस्तात्कालिकीं क्रियाम् । रचयेच्च जिनेन्द्राच जलगंधाक्षतादिभिः ॥ ३१३ ॥ अर्थ- प्रातः काल उठकर तात्कालिक शौचादि क्रियाओं को करके शुद्ध शरीर होकर जल-गंध-अक्ष आदि द्रव्यों से जिनेन्द्र देव की पूजा करें I (१३) श्री धर्मरत्नाकर में भी कहा है
प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा तात्कालिकं क्रियाकल्पम् । निर्वर्तयेद्यथोक्तं, जिन पूजां प्रासुकैर्द्रव्यैः ॥ ५०३ ॥ अर्थ- इसके बाद प्रातः काल उठकर और तात्कालिक सामायिक आदि विधि को करके प्रासुक द्रव्यों के द्वारा आगमोक्त विधि से जिनपूजा करनी चाहिये ।
रात्रि में पूजा निषेध के आगम प्रमाण १. श्री धर्मसंग्रह श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है
न श्राद्धं दैवतं कर्म स्नानं दानं न चाहुतिः । जायते यत्र किं तत्र नराणां भोक्तुमर्हति । ३-२५ । अर्थ- जब रात्रि में श्राद्ध, देवकर्म (पूजा), स्नान,
जून-जुलाई 2007 जिनभाषित 29
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