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________________ कहा है . रात्रि में देव पूजन करना आगमसम्मत नहीं पं. पुलक गोयल श्रावक के षट्कर्मों में देव पूजा को प्रथम स्थान दिया | मिलता है। नीचे उनमें से कुछ प्रमाण प्रस्तुत कर रहा हूँ। गया है। आचार्यों ने पूजा के संबंध में इस प्रकार कहा है- | (अ) प्रातः काल अथवा तीनों सन्ध्याकालों में पूजा श्रीमाज्जिनेन्द्राणां, पाद पद्मद्वये मुदा। पूजा के आगम प्रमाण महा भव्यैः प्रकर्तव्या, लोक द्वय सुख प्रदा। (१) श्री यशस्तिलक चम (स.स. १८६) | प्रातर्विधिस्तव पदाम्बुजपूजनेन मध्यान्हसन्निधिरयं मुनिमाननेन। अर्थ- महान भव्य जीवों को इस लोक और परलोक | सायन्तनोऽपि समयो मम देव यायान् नित्यं त्वदाचरण कीर्तन में सुख देने वाली श्री जिनेन्द्र भगवान् के दोनों चरण कमलों | कार्मितेन॥ ५२९॥ की पूजा हर्ष पूर्वक करनी चाहिये। अर्थ- हे देव! प्रातः कालीन विधि आपके चरण __ वर्तमान में श्रावकों में देवपूजा करने की रूचि एवं | कमलों की पूजा से सम्पन्न हो, मध्यान्ह काल का समागम उसके प्रति आदर भाव निरंतर बढ़ता हुआ भी देखा जा | मुनियों के आतिथ्य सत्कार में बीते तथा सांय काल का रहा है, जो शुभ सूचक है। परंतु कुछ महानुभाव रात्रि में | भी समय आपके चरित्र के कथन कामना में व्यतीत हो। भी देव पूजा करते हुये दिखाई देते हैं। सन् १९९६ में जब | (१) श्री व्रतोद्योतन- श्रावकाचार में कहा हैपूज्य आचार्य विद्यासागर जी महाराज का चातुर्मास महुआ भव्येन प्रातरुत्थाय जिनबिम्वस्य दर्शनम्। (सूरज-गुजरात) में हो रहा था, तब महुआ के निवासी कुछ विधाय स्वशरीरस्य क्रियते शुद्धिरूत्तमा ।। २॥ लोग दशलक्षणपर्व के दिनों में रात्रि को १० बजे पर्व की परिधाय धौतवस्त्राण्यादाय सच्चन्दनानि पुष्याणि। पूजा प्रारम्भ करते थे और २ बजे रात्रि तक करते रहते तेन युगान्तर दृष्ट्या दृष्टव्या जीव संघांताः ॥ ३॥ जिन भवनं तेन तदालोकयता त्रिप्रदक्षिणं कृत्वा। थे। महुआ का प्रसिद्ध भगवान् पार्श्वनाथ का मंदिर नदी के किनारे पर स्थित है। रात्रि में पूजा स्थल पर विशेष प्रकाश आरभ्या जिनपूजा श्रुतपूजा मुनीन्द्र पूजा च ॥ ४॥ अर्थ- भव्य जीवों को प्रातः काल उठकर और व्यवस्था होने से चार इन्द्रिय जीवों की महान् हिंसा होती जिनबिम्ब का दर्शन करके अपने शरीर की उत्तम शुद्धि थी। प्रात: जब सफाई होती थी तब लाखों मच्छर एवं टिड्डे | करनी चाहिये॥२॥ आदि जंतु मरे हुये मिलते थे। मैंने उनको इस संबंध में बहुत समझाने की कोशिश की, परंतु वे कुछ भी सुनने पुनः धुले वस्त्रों को पहिनकर और उत्तम चंदन पुष्पादि लेकर चार हाथ भूमि को शोधते और जीव समूह को तैयार नहीं हुये। क्या इतनी घोर हिंसा होने के बाद को देखते हुए जिन मंदिर को जाना चाहिए ॥३॥ जो पूजा की जाय, उसे पुण्य बंध में कारण माना जा सकता वहाँ जाकर और तीन प्रदक्षिणा देकर जिन पूजा, है? कभी नहीं माना जा सकता। जैन धर्म का मूल तो अहिंसा है। श्रावक के पूजा आदि षट्कर्मों में यद्यपि तुच्छ हिंसा श्रुतपूजा और मुनिजनों की पूजा आरंभ करनी चाहिये॥४॥ अवश्यम्भावी है, जैसे अभिषेक के लिये जल गर्म करना (३) श्री धर्म संग्रह श्रावकाचार में इस प्रकार कहा है प्रातर्जिनालये गत्वा स्तुत्वा चेष्ट्वा जिनादिकान्। आदि में। परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हिंसा करने तत्र स्थित्वा कियत्कालं प्रगच्छेन्निजमंदिरम्॥६२॥ में स्वच्छन्द हो जाया जाये। पूजा आदि कार्यों में भी पूरे अर्थ- पुनः प्रातः काल जिनालय जाकर और वहाँ यत्नाचार सहित ही प्रवृत्ति होनी चाहिये। यत्नाचार पूर्वक देव, गुरु तथा शास्त्रादि की संस्तुति करके तथा पूजन करके प्रवृत्ति ही धर्म है। और कुछ समय तक वहाँ पर रहकर इसके बाद फिर अपने विभिन्न श्रावकाचारों में जब इस विषय पर खोज मकान पर आवे॥६२॥ की गयी तो मुझे दो प्रकार के प्रमाण प्राप्त हुये। एक तो (४) श्री चारित्रसार ग्रंथ में इस प्रकार कहा हैऐसे प्रमाण थे जिनमें प्रातः अथवा सुबह, दोपहर तथा बलि स्नपनं सन्ध्यात्रयेऽपि जगत्रयस्वामिनः सांयकाल तीनों समय पूजा करने का विधान मिलता है एवं पूजाभिषेक करणम्। दूसरे प्रमाण वे मिले जिनमें रात्रि पूजा का स्पष्ट निषेध 28 जून-जुलाई 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524318
Book TitleJinabhashita 2007 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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