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________________ पुत्रों का उद्भव हुआ है जिनके उदाहरणों से शास्त्र भरे हुए हैं। सत्परुषों की दृष्टि में वह जाति ही बड़ी अथवा और प्रत्यक्ष में भी ऐसे दृष्टान्तों की कमी नहीं है। अग्रवाल | ऊँची है जिसमें संयम, नियम, शील, तप, दान, दम (इन्द्रियादि जो किसी समय क्षत्रिय थे वे आज प्रायः वैश्य बने हुए हैं। निग्रह) और दया ये गुण वास्तविक रूप से विद्यमान होते ऐसी हालत में यह सनिश्चित है. कि इन जातियों में कोई हैं-बनावटी रूप से नहीं तात्विक अथवा प्राकतिक भेद नहीं है--सबकी एक ही मनुष्य | भावार्थ- इन गुणों का यथार्थ में अनुष्ठान करनेवाले जाति है। उसी को प्रधानतः लक्ष्य में रखना चाहिये। | व्यक्तियों के समह को ही ऊँची जाति कहते हैं। और इसलिये ब्राह्मणोऽवाचि विप्रेण पवित्राचारधारिणा। जो व्यक्ति सच्चाई के साथ इन धर्मगुणों का पालन करता है विप्रायां शुद्धशीलायां जनिता नेदमुत्तरम्॥२७॥ उसे ऊँची जाति का अङ्क समझना चाहिये-भले ही वह नीच न विप्राविप्रयोरस्ति सर्वदा शुद्धशीलता। | कहलाने वाली जाति में ही क्यों न उत्पन्न हआ हो। उपर्यक्त कालेनाऽनादिना गोत्रे स्खलनं क न जायते ॥२८॥ गुण ऐसे हैं जिन्हें सभी जातियों के व्यक्ति धारण कर सकते यदि यह कहा जाये कि पवित्राचारधारी ब्राह्मण के | हैं और वे धारण करनेवाले व्यक्ति ही उस महती जाति का द्वारा शुद्धशीला ब्राह्मणी के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न होता है | निर्माण करते हैं जो आचार्य महोदय की कल्पना में स्थित है। उसे ब्राह्मण कहा गया है-तुम ब्राह्मणाचार के धरनेवाले को | दृष्टा योजनगन्धादिप्रसूतानां तपस्विनाम्। ही ब्राह्मण क्यों कहते हो?-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि यह व्यासादीनां महापूजा तपसि क्रियतां मतिः॥३०॥ मान लेने के लिये कोई कारण नहीं है कि उन ब्राह्मण और | (धीवरादि नीच जातियों की) योजनगंधादि स्त्रियों से ब्राह्मणी दोनों में सदा काल से शुद्धशीलता का अस्तित्व उत्पन्न व्यासादिक तपस्वियों की लोक में महापूजा देखी (अक्षुण्णरूप से) चला आता है। अनादि काल से चली जाती है- यह सब तप संयमादि गुणों का ही माहात्म्य हैआई हुई गोत्र-सन्तति में कहाँ स्खलन नहीं होता?-कहाँ दोष | अतः तपसंयमादि गुणों की प्राप्ति का ही यत्न करना चाहिये नहीं लगता?-लगता ही है। (उससे जाति स्वयं ऊँची उठ जायेगी)। भावार्थ- इन दोनों श्लोकों में आचार्य महोदय ने भावर्थ-नीच जाति की स्त्रियों से उत्पन्न व्यक्ति यदि जन्म से जाति माननेवालों की बात को नि:सार प्रतिपादन | नीच जाति के ही रहते और नीच ही समझे जाते तो व्यास जी किया जिससे जातीयता एकांत पक्षपाती जिस रस्त | जैसे तपस्वी, जो कि एक धीवर कन्या से व्यभिचार द्वारा शुद्धि के द्वारा जाति, कुल अथवा गोत्र शुद्धिकी डुगडुगी पीटा | उत्पन्न हुये थे, लोक में कभी इतनी पूजा और प्रतिष्ठा को करते हैं, उसी की नि:सारता को घोषित किया है और यह प्राप्त न कर सकते। इससे साफ जाहिर है कि नीच जाति के बतलाया है कि वह अनादि प्रवाह में बन ही नहीं सकती व्यक्ति भी सदगणों के प्रभाव से ऊँच जाति के हो जाते हैं। बिन किसी मिलावट के अक्षण्ण रह ही नहीं सकती। इन अथवा यों कहिये कि नीच जातियों में भी अपने-अपने रत्न पद्यों में कामदेव की दुर्निवारता और उससे उत्पन्न होने उत्पन्न होते हैं और हो सकते हैं। इसलिये उनकी उपेक्षा की वाली विकारता का वह सब आशय संनिहित जान पड़ता है। जाने योग्य नहीं-उन्हें ऊँचे उठने का यत्न करना चाहिये। जिसे पं. आशाधरजी ने कुल-जाति-विषयक अहङ्कृति को शीलवन्तो गताः स्वर्गे नीचजातिभवा अपि। मिथ्या, आत्मपतन का हेतु और नीच गोत्र के बंध का कारण कुलीनां नकं प्राप्ताः शीलसंयमनाशिनः ॥३१।। नीच जातियों में उत्पन्न होने पर भी सदाचारी व्यक्ति ठहराते हुए, अपने अनगारधर्मामृत ग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ टीका में प्रकट किया है और जिसका उल्लेख लेखक द्वारा स्वर्ग को प्राप्त हुये हैं और ऊँच जातियों में जन्म लेने वाले विवाह-क्षेत्र-प्रकाश के 'असवर्ण और अन्तर्जातीय विवाह' असदाचारी-शीलसंयमादि से रहित-कुलीन लोग भी नरक में गये हैं। नामक प्रकरण में किया गया है। गोत्रों में अन्य प्रकार से कैसे भावार्थ- ऊँची जातिवाले जब नीच गति को और स्खलन होता है, उनकी धारा कैसे पलट जाती है और वे नीच जातिवाले ऊँची गति को प्राप्त हुये हैं-और हो सकते कैसी विचित्र स्थिति को लिये हुए हैं, इस बात को सविशेष हैं-तब वास्तव में इन ऊँच-नीच गिनी जानेवाली जातियों का । रूप से जानने के लिए विवाह-क्षेत्र-प्रकाशका 'गोत्रस्थिति और सगोत्रविवाह' नाम का प्रकरण देखना चाहिये। कुछ भी महत्त्व नहीं रहता। उच्चत्व और नीचत्व का अथवा अपने उत्कर्ष और अपकर्ष का सारा खेल गुणों के ऊपर संयमो नियमः शीलं तपोदानं दमो दया। विद्यन्ते तात्विका यस्यां सा जातिमहती सताम्॥२९॥' अवलंबित है। अत: सदगणों की प्राप्ति करने कराने का यही 24 मार्च 2007 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524315
Book TitleJinabhashita 2007 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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