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जातिभेद पर अमितगति आचार्य
पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार जैन समाज में 'अमितगति' नाम के एक प्रसिद्ध । की तरह वास्तविक नहीं हैं किन्तु काल्पनिक हैं और उनकी आचार्य हो गये हैं। इनके बनाये हुए उपासकाचार, यह कल्पना आचार मात्र के भेद से की गई है। अत: जिस सुभाषितरत्नसंदोह और धर्मपरीक्षा आदि ही कितने ग्रंथ मिलते | जाति का जो आचार है उसे जो नहीं पालता, वह उस जाति हैं और वे सब आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं। ये आचार्य | का व्यक्ति नहीं-उसकी गणना उस जाति के व्यक्तियों में आज से प्रायः ९०० वर्ष पहले विक्रम की ११ शताब्दी में- की जानी चाहिये जिसके आचार का वह पालन करता है। राजा मुंज के समय में हुए हैं और इन्होंने धर्मपरीक्षा ग्रंथ को | ऐसी दशा में ऊँची जाति वाले नीच और नीची जाति वाले विक्रम संवत् १०७० में बनाकर समाप्त किया था। इस ग्रंथ | उच्च हो जाने के अधिकारी हैं। इसी में भीलों तथा म्लेक्षों के १७ वें परिच्छेद में आपने जातिभेद पर कुछ महत्त्व के | आदि की जो कन्याएँ उच्च जातिवालों से विवाही गई वे विचार प्रकट किये हैं, जो सर्वसाधारण के जानने योग्य हैं। | आचार के बदल जाने से उच्च जाति में परिणत होकर अतः नीचे पाठकों को उन्हीं का कुछ परिचय कराया जाता | | उच्चत्व को प्राप्त हो गई, और उनके कितने ही उदाहरण
'विवाह क्षेत्र-प्रकाश' में दिये गये हैं। न जातिमात्रतो धर्मो लभ्यते देहधारिभिः।
ब्राह्मणक्षत्रियादीनां चतुर्णामपि तत्वतः। सत्यशौचतपः शीलध्यानस्वाध्यायवर्जितैः॥२३॥ एकैव मानुषी जातिराचारेण विभज्यते॥२५॥
जो लोग सत्य, शौच, तप, शील, ध्यान और स्वाध्याय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों की वास्तव में से रहित हैं उन्हें जातिमात्र से-महज किसी ऊँची जाति में | एक ही मनुष्य जाति है, वही आचार के भेद से भेद को प्राप्त जन्म ले लेने से धर्म का कोई लाभ नहीं हो सकता। हो गयी है-जो भेद अतात्त्विक है।
भावार्थ- धर्म का किसी जाति के साथ कोई |. भावार्थ- सब मनुष्य मनुष्य जाति की अपेक्षा समान अविनाभावी संबंध नहीं है, किसी उच्च जाति में जन्म ले | हैं-एक ही तात्विक जाति के अङ्ग हैं- और आचार अथवा लेने से ही कोई धर्मात्मा नहीं बन जाता। अथवा यों कहिये | वृत्ति के बदल जाने पर एक अतात्विक जाति का व्यक्ति कि सत्य शौचादिक से रहित व्यक्तियों के उनकी उच्च | दूसरी अतात्त्विक जाति का व्यक्ति बन सकता है। अत: एक जाति धर्म की प्राप्ति नहीं करा सकती प्रत्युत। इसके जो | जाति के व्यक्ति को दूसरी जाति के व्यक्ति से कभी घृणा सत्य-शौचादि गुणों से विशिष्ट हैं वे हीन जाति में उत्पन्न | नहीं करनी चाहिये और न अपने को ऊँचा तथा दूसरे को होने पर भी धर्म का लाभ प्राप्त कर सकते हैं और इसलिये | नीचा ही समझना चाहिये। ऊँच नीच की दृष्टि से यह भेद जो लोग किसी उच्च कहलाने वाली जाति में उत्पन्न होकर | कल्पना ही नहीं। सत्य-शौचादि धर्मों का अनष्ठान न करते हए भी अपने को
भेदे जायेत विप्रायां क्षत्रियो न कथंचन। ऊँचा, धर्मात्मा, धर्माधिकारी या धर्म का ठेकेदार समझते हैं शालिजातौ मया दृष्ट: कोद्रवस्य न संभवः ॥२६॥
और दूसरी जातिवालों का तिरस्कार करते हैं, यह उनकी यदि इन ब्राह्मणादि जातियों के भेद को तात्विक भेद बड़ी भूल है।
माना जाये तो एक ब्राह्मणी से कभी क्षत्रिय पुत्र पैदा नहीं हो आचारमात्रभेदेन जातीनां भेदकल्पनम्।
सकता; क्योंकि चावलों की जाति में मैंने कभी कोदों को नजातिर्ब्राह्मणीयास्ति नियता कापि तात्विकी॥२४॥ | उत्पन्न होते हुए नहीं देखा। जातियों की जो यह ब्राह्मण-क्षत्रियादि रूप से भेद- भावार्थ- इन जातियों में चावल और कोदों जैसा
वह आचार मात्र के भेद से है-वास्तविक नहीं। तात्त्विक भेद मानने पर एक जाति की स्त्री से दूसरी जाति वास्तविक दृष्टि से कहीं भी कोई नियता-अथवा शाश्वती- | का पुत्र कभी पैदा नहीं हो सकता। ब्राह्मणी के गर्भ से क्षत्रिय 'ब्राह्मण जाति नहीं है (इसी तरह पर क्षत्रिय आदि जातियाँ भी | पुत्र का और क्षत्रिया के गर्भ से वैश्य अथवा ब्राह्मण पुत्र का तात्विकी और शाश्वती नहीं हैं)।
उत्पाद नहीं बन सकता। परन्तु ऐसा नहीं है, ब्राह्मणों में भावार्थ- ये मूल जातियाँ भी (अग्रवाल, खंडेलवाल | अथवा ब्राह्मणियों के गर्भ से कितने ही वीर क्षत्रिय पैदा हुए आदि उपजातियों की तो बात ही क्या) गो अश्वादि जातियों | हैं, और क्षत्रियों में अथवा क्षत्राणियों के गर्भ से अनेक वैश्य
-मार्च 2007 जिनभाषित 23
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