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________________ कुन्दकुन्दस्वामी ने जहाँ हिंसारहित धर्म, १८ दोषों से । ही पुरुषार्थ करने पर मीठा फल, पुरुषार्थ करनेवाले को ही रहित जिनदेव तथा निर्ग्रन्थ श्रमण के प्रवचन में श्रद्धान करना | मिलता/मिल सकता है। वीतराग देव की अभिषेक, पूजा सम्यग्दर्शन कहा है, वहीं रत्नकरण्डक श्रावकाचार में आप्त, | करने से, वीतरागी निर्ग्रन्थ साधुजनों की वैयावृत्त्य करने तथा आगम तथा तपोभृत में ३ मूढ़ता तथा ८ मद रहित, सम्यग्दर्शन | उनके द्वारा प्ररूपित बातों पर श्रद्धान करने एवं तदनुरूप के ८ दोष रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, किन्तु इस ओर | आचरण करने से आज भी कल्याण किया जा सकता है। किसी की दृष्टि नहीं जा रही है। इसे तो मात्र व्यवहार कहा जेण रागा विरज्जेज्ज जेण सेएसु रज्जदि। जाता है। कुछ लोगों के द्वारा पौराणिक ग्रन्थों को कथा कहा जेण मित्तीं पभावेज्जतंणाणं जिणसासणे।। जाता है और सही सम्यक्त्व किसी और को मानते हैं। अपनी (मूलाचार/३२२) बात को चलाया जाना/कहना अलग बात है जबकि सही कुन्दकुन्दस्वामी ने कहा है कि जिनशासन में ज्ञान बात का चलना/कथन करना अलग बात है। दुकानदार की | वही है जिससे रागद्वेषादि पूर्णत: या एकदेश नष्ट हो सके। आँखें कमजोर होने तथा अंधकार के होने पर खोटी चवन्नी | जिससे विषय-कषाय मिटे उससे ही सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति भी चल जाती है। आज कुछ ऐसा ही हो रहा है। होगी। कल्याणकारी मार्ग पर रुचि बढे और कल्याणमार्ग पर स्वयं ही सोचो, विचार करो कि जिसके माध्यम से | स्थित जनों के प्रति अनुराग बढे, वही सम्यग्ज्ञान का प्रतिफल सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती हो, जिसके पूजन आदि करने से | असंख्यातगणी कर्मों की निर्जरा होती हो, उस क्रिया/भाव धर्मानुराग भले ही राग है, किन्तु वह विषयानुराग से को सही-सही जानो। देवदर्शन से सम्यग्दर्शन होता है और | बहत ऊँचे दर्जे की चीज/बात है। विचार करो कि यदि देवपूजन से कर्मबंध होता है, ऐसा कथन करना ही गलत है। धर्मानुराग को मात्र राग ही कहा जावे तो कुन्दकुन्दस्वामी ने ऐसा कथन उस प्रकार की दुकान में चल सकता है समीचीन | स्वयं साहित्य का निर्माण क्यों किया? कुन्दकुन्द के हृदय से दुकान में नहीं। तो करुणा का अविरल झरना झरता था। आचार्य समन्तभद्र, श्रावकों को यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस गुजरात पूज्यपाद, वीरसेन, जिनसेन, जयसेन आदि प्रमुख आचार्यों की अङ्कलेश्वर की पावन भूमि में आज श्रुतपंचमी के दिन के हृदय में भव्यजीवों के प्रति करुणाभाव था तभी उनके सर्वप्रथम श्रुत निबद्ध हुआ, लिपिबद्ध हुआ उसी गुजरात में दिव्य सम्यग्ज्ञान से साहित्य सृजन हुआ और हमारी प्यास ज्ञान की नहीं, किन्तु चारित्र की आवश्यकता है। देश, काल | बुझ सकी। उनकी जिस करुणामयी भावना से हम सभी को के कारण सामाजिक व्यवस्था कुछ बदल सी गयी है पूर्व में | दृष्टि मिली उसे राग का कारण कहना ही गलत है। उनके जैन समाज का प्रचार-प्रसार विस्तृत था। संख्या भी बहुत | जिस प्रवचन से हम सभी को मार्ग मिला, ऐसे आचार्यों को थी। तालाब का पात्र वर्षा के कारण बहुत दूर तक फैल जाता | मार्ग से भटके हुए, कैसे कहा जा सकता है? है, किन्तु ग्रीष्म काल में थोड़ा सा पानी रह जाता है शेष सूख आचार्यों ने हितकारी मार्ग प्रदर्शन करना कर्त्तव्य माना जाता है। काल के कारण उपादान में कुछ ऐसी ही कमजोरी | है। जिसके पास जो है स्वयं खाते हुए, अन्य को भी खिलाना से एवं परिवर्तन से सुखाव आ जाता है, परन्तु घबराना/डरना | चाहिए मात्र अकेले ही नहीं खाना है। खाना लड़के को है नहीं है। थोडा भी उस आत्मा को हिलावें, पुरुषार्थ की ओर | उसके लिये माँ अपने खिलाने के कर्त्तव्य का पालन अवश्य प्रेरित करें तो अनंत जल भी अन्तः जल के रूप में फूटकर | करती है। बालक अज्ञान है अतः कभी दूर भागता है। उसे बाहर आकर अंतरआत्मा में आकर जागृति कर सकता है। | खिलाने हेतु मां बुलाती है। बुलाना गलती नहीं, परन्तु भूख सखी नदियों में रेत के कारण आर्द्रता दिखती नहीं है, किन्तु को ही भल जाना गलती है। हमारी यही गलती है कि हम उसमें थोड़ा सा खोदने पर थोड़े ही नीचे स्वच्छ जल प्राप्त हो | ऐसे महान् पूर्वाचार्यों की वाणी को ही भूला रहे हैं वे तो हमें जाता है। उतने जल से भले ही नदी में पानी बह नहीं समझाते हए कभी बेटा, कभी वत्स तो कभी भव्य ही कहते सकता, किन्तु रुके हुये उतने जल से प्यास की तृप्ति हो ही | हैं। अच्छी बात कहते हुए कभी आवश्यक समझाने पर जाती है। वैसे ही तीर्थंकर एवं ऋद्धिधारी मुनिराजों एवं | हमारा कान भी पकड़ लेते हैं। पेट भरने पर ही कान पकड़ा चतुर्थकाल के अभाव में आज भी सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के | जाता है। दक्षिण में कहा जाता है कि जब तक कान को आलंबन से अपना कल्याण किया जा सकता है। जिस | मसला नहीं जाये तब तक वह कुण्डल पहनने योग्य नहीं प्रकार पानी खेत में नहीं नदी में ही बह/मिल सकता है वैसे | होते। उसी प्रकार छोटे बच्चों की नाक को मसले बिना 10 मार्च 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524315
Book TitleJinabhashita 2007 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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