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________________ रहित होने के कारण जिनेन्द्र देव नमस्कृत होते हैं। ऐसे जिनेन्द्र के बिम्ब को देखकर मिथ्यादृष्टि का मिथ्यात्व या अनंतकालीन आर्त, पीड़ा रूप दशा भी उपशमित हो जाती है । मिथ्यादृष्टि की दृष्टि में भी बिम्बगत वीतरागता आ सकती है, जबकि सम्यग्दृष्टि की दृष्टि में भी सर्वज्ञत्व देखने में नहीं आता । ध्यान रखो, सर्वप्रथम जिन जिनेन्द्र को मानो, जिनवाणी को मानो, फिर जिन के अनुरूप चलनेवाले गुरुओं को भी मानो । इसी से आपका भला, कल्याण होगा । देव - गुरु-शास्त्र की पहचान, परख पहले बताई है । इन्हीं के माध्यम से हमारा कल्याण होने वाला है । धवला आदि महान् ग्रंथों में कहा गया है कि 'भाणिदब्वं' अर्थात् विषय को शिष्यों के मुख से कहलवाना चाहिए। वहां भणिदब्वं नहीं कहा। उच्चारित करना चाहिए, यह नहीं कहा। आजकल तो 'सेल्फ स्टडी' होने लगी है जो एस.टी.डी. जैसी हो गयी है। अपने आप पढ़ो, अपने अनुरूप अर्थ खोलो और बोलो। इतना ही नहीं आज तो स्वाध्याय भी व्यवसाय का रूप बन गया या बनता जा रहा है। जब मैं आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के पास ब्रह्मचारी अवस्था में गया था तब देखता था कि उस समय एकाध व्यक्ति ही प्रकाशन कर/करा पाता था। वह उस प्रकाशित ग्रन्थ / पुस्तक का मूल्य रखता था विनय, स्वाध्याय, आत्मचिंतन, मनन, आदर आदि। उन पर मूल्य के रूप में पैसा / रुपया नहीं लिखा जाता था। पर आज की दशा तो विचित्र है। इतना ही नहीं जब जिनवाणी भीतर से / भण्डार से बाहर शास्त्र की गद्दी पर लाई / विराजमान की जाती थी, तो उस समय सब को सचेत करने हेतु 'सावधान' कहा जाता था। उस समय 'ज्ञानवान' नहीं कहते, अपितु ज्ञान को सावधान करने, अभिमान एवं विषय कषायों को छोड़ने के लिये विनय, श्रद्धा एवं आस्थावान होने के लिए संकेत किया जाता है । पूर्व में कोई व्यक्ति यदि भक्तामर तत्त्वार्थसूत्र या जिनसहस्रनाम आदि को सुना देता तो सुननेवाला उसका महत्त्व समझते, यहाँ तक कि सुनानेवाले की भी विनय करते थे, परन्तु आज यह सब महत्त्व समाप्त सा हो गया / होता जा रहा है। आज तो जिनवाणी को, कीमत लेकर/ लिखकर बांट रहे हैं, सर्वाधिकार सुरक्षित कर/करा रहे हैं । आगम में उल्लेख मिलता है कि जिनवाणी के माध्यम से आजीविका, व्यवसाय करना गलत है। जिनवाणी के माध्यम से जो व्यवसाय करता है वह सत्य का प्ररूपण नहीं कर सकता । Jain Education International वेतन के चक्कर में रहनेवाला कभी चेतन के बारे में सहीसही बात नहीं कर सकता। जिनवाणी के श्रवण की कीमत धन नहीं या धन से नहीं आङ्की जा सकती। किंतु आज ग्रन्थ में देखते हैं ग्रन्थ की कीमत देखकर ग्रन्थ का मूल्य निर्धारित करते, खरीदते हैं। इतना ही नहीं अब तो ग्रन्थ का मूल्य भी बदलता रहता है । संख्या के सामने एक शून्य और रखकर उसके मूल्य को विकासोन्मुख किया जाता है I 1 इसी प्रकार पहले मूर्तियों को खरीदते समय उनका मूल्य नहीं किया जाता था तब न्यौछावर होती थी । प्रतिष्ठा पूर्व जयपुर आदि से प्रतिमा जी को लाने हेतु राशि भेंट की जाती थी। आज से १८ - २० वर्ष पूर्व की बात है । कुण्डलपुर (दमोह, मध्यप्रदेश) के संभवत: प्रथम चातुर्मास (सन् १९७६) की बात होगी। उस समय शासन ने एक सूचना प्रसारित की थी। कि किसी भी धर्म / सम्प्रदाय से संबंधित जो भी सौ वर्ष से प्राचीन सामग्री, मूर्ति, पुस्तक, ग्रन्थ आदि सामग्री हो, उनका नाम, विस्तृत परिचय / विवरण तथा साथ में उसका वजन भी बताना आवश्यक था। समाज में चर्चा हुई कि सबका परिचय काल तथा फोटो तो दिया जा सकता है, परन्तु प्रतिमा जी को तोला नहीं जा सकता । भगवान् तो अतुल हैं अनमोल हैं, उन्हें तुला पर तोला नहीं जा सकता। यही सम्यग्दर्शन है, उनके प्रति आस्था एवं विनय की सूचना है। भगवान् की, गुरुओं की अथवा जिनवाणी रूपी शास्त्र की कोई कीमत नहीं होती । बिम्ब की प्रतिष्ठा होने के पश्चात् वह प्राणियों के लिये सम्यग्दर्शन प्राप्ति का कारण बन जाती है। हजारों वर्षों से, खड़े जिनालय और उनमें विराजित प्रतिमाओं का दर्शन करके सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं। जिनवाणी के महत्त्व / मूल्य को पहचानो/ वह महत्त्वपूर्ण है, उसे अथवा उसकी एक गाथा / कारिका या श्लोक को लाखों-करोड़ों रुपयों के द्वारा खरीदा नहीं जा सकता। जिनवाणी कह देने मात्र से वह जिनवाणी नहीं होती अपितु उसे पढ़कर पंचेन्द्रिय विषयों से बचें तभी उसकी सार्थकता है । मूल्य की ओर दृष्टि नहीं होनी चाहिये। जो विषय पोषक तथा व्यवसाय का कारण हो, वह जिनवाणी कैसे हो सकती है? अष्टपाहुड में कुन्दकुन्दस्वामी ने जो कहा है उसका भाव ही लगभग छाया के रूप में रत्नकरण्डक श्रावकाचार में समन्तभद्रस्वामी ने किया है श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ For Private & Personal Use Only ( रत्नकरण्डक श्रावकाचार /४) मार्च 2007 जिनभाषित 9 www.jainelibrary.org
SR No.524315
Book TitleJinabhashita 2007 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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