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उसकी नाक टेढ़ी ही रह जाती है। उसे सीधे कर चंपक के । जिसकी पूर्ति बाद में श्री जिनसेन स्वामी ने पूर्ण की थी।
दूर
समान बनाई जाती है। किसी-किसी की नाक, गर्दन आदि भी सीधी की जाती है। वैसे ही आचार्यों ने हमारी गलती को करने हेतु हमारे कान भी पकड़े हैं। साधु के लिए तो 'आगम चक्खू साहू' कहा है परन्तु धर्मानुराग से आचार्यों ने जो साहित्य-सृजन किया है उसे ही राग कहना हमारा दृष्टिदोष है ।
कषायपाहुड ग्रन्थ की कुछ विशेषतायें भी हैं । षट्खण्डागम ग्रन्थ में जहाँ बहुत विषय होकर भी बहुत प्रकार का यानी बहुत - बहुत है, किन्तु इसमें मात्र मोहनीय के परिवार मात्र का विस्तृत विवरण है। षट्खण्डागम पर निर्मित धवला टीका युक्त आज १६ पुस्तकें हैं तो १८० या २३३ गाथाओं पर कसायपाहुड ग्रंथ में जय धवला टीका युक्त १६ ही पुस्तकें हैं। इसे देखकर जैन नहीं, बल्कि जैनेतर लोगों को भी सर्वज्ञत्व पर विश्वास होता है। मोहनीय कर्म का बंध, बंधक कारक, कर्ता, संवर एवं निर्जरा आदि का विस्तृत ज्ञान इसके समान अन्यत्र नहीं है। केवल षट्खण्डागम ही प्राचीन ग्रन्थ नहीं है। यह भी एक प्राचीन आर्षग्रन्थ है जिसको अपनी पात्रता के अनुरूप ही स्वाध्याय कर आत्मा की निगूढ़ता तथा सूखी नदी में से जलांश की प्राप्ति होती है वैसे ही इनके स्वाध्याय/अध्ययन से आत्मा की निगूढ़ता का अवबोध होता है ।
इंदसदवंदियाणं तिहुअणहिदमधुरविसदवक्काणं । अंतातीदगुणाणं णमो जिणाणं जिदभवाणं ॥ (पंचास्तिकाय/१) पंचास्तिकाय ग्रन्थ के मंगलाचरण में कुन्दकुन्द भगवान् ने लिखा है कि तीन भुवन के भव्यजीवों के हित के लिए श्रमण के मुख से मधुर वचन, करूणा से आपूरित हितकर वाणी निकली थी। ऐसे हितकर, कल्याणप्रद वचनों के लिखनेवाले वीतरागी को भी रागी कहना हमारा दृष्टिदोष ही
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देव-गुरु-शास्त्रों में दोष निकालना नहीं अपितु उनके अनुरूप चलने से ही हमारा कल्याण होगा। जिस प्रकार आज के दिन हम श्रीधरसेनस्वामी तथा पुष्पदंत एवं भूतबली महाराज का स्मरण कर रहे हैं, क्योंकि उनके माध्यम से हमें यह ' षट्खण्डागम' रूप ग्रन्थ मिला। उसी प्रकार कर्म सिद्धांत के एक अन्य ग्रन्थ 'कसायपाहुड़' की रचना श्री गुणधर आचार्य ने की हैं। कुछ लोग इनको धरसेनस्वामी से भी पूर्ववर्ती मानते है। षट्खण्डागम ग्रन्थ जहाँ सूत्रात्मक है वहीं कसायपाहुड़ गाथात्मक है। उन पर नागहस्ती एवं आर्यमक्षु के शिष्य श्री यतिवृषभस्वामी ने 'चूर्णिसूत्रात्मक' विपुल टीका लिखी है। इसी के आधार पर श्री वीरसेनस्वामी ने धवला के समान इस ग्रन्थ पर जय धवला टीका की संरचना की है,
गुरूपदेशादभ्यासात् संवित्तेः स्वपरान्तरम् । जानाति यः स जानाति मोक्षसौख्यं निरन्तरम् ॥ (इष्टोपदेश/३३) गुरुओं का उपदेश प्राप्त कर, मार्गदर्शन प्राप्त कर जो आत्मा एवं तत्त्व को प्राप्त करने तत्पर होता है, वह शीघ्र ही इनके पठन-पाठन से रत्नत्रय की प्राप्ति / उपलब्धि के साथ अपने संयम का विकास कर लेता है। इन्हें जो पढ़ने की योग्यता रखते हैं, वे भी जब कभी नहीं खोलें, क्योंकि इनका योग्य विनय / बहुमान आवश्यक है। इनके अवलोकन से दिव्यज्ञान एवं आत्म-कल्याण की अनोखी बात मिलती है। 'महावीर भगवान की जय'
'चरण आचरण की ओर' से साभार
निर्भयता
बुन्देलखण्ड में आचार्य महाराज का यह पहला चातुर्मास था। एक दिन रात्रि के अँधेरे में कहीं से बिच्छू आ गया और उसने एक बहिन को काट लिया। पंडित जगन्मोहनलाल जी वहीं थे। उन्होंने उस बहिन की पीड़ा देखकर सोचा कि बिस्तर बिछाकर लिटा दूँ, सो जैसे ही बिस्तर खोला उसमें से सर्प निकल आया। उसे जैसे-तैसे भगाया गया ।
दूसरे दिन पंडित जी ने आचार्य महाराज को सारी घटना सुनाई और कहा कि महाराज ! यहाँ तो चातुर्मास में आपको बड़ी बाधा आएगी। पंडित जी की बात सुनकर आचार्य महाराज हँसने लगे। बड़ी उन्मुक्त हँसी होती है महाराज | की। हँसकर बोले कि 'पंडित जी, यहाँ भी कल दो-तीन सर्प खेल रहे थे। यह तो जंगल है। जीव-जन्तु तो जंगल में ही रहते हैं। इससे चातुर्मास में क्या बाधा? वास्तव में, हमें तो जंगल में ही रहना चाहिए। कर्म-निर्जरा परीषह-जय से ही होगी।'
उपसर्ग और परीषह - जय के लिए अपनी निर्भयता व तत्परता ही साधुता की सच्ची निशानी है।
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कुण्डलपुर (1976)
मार्च 2007 जिनभाषित 11
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