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________________ सम्यग्दर्शनादि की उत्पत्ति से आत्मा में जो निर्मलता उत्पन्न होती है, उसे आचार्य कुन्दकुन्द ने 'जह दंसणेण सुद्धा' (सुत्तपाहुड/गा. 25), 'तववयगुणेहिं सुद्धो' (बोधपाहुड/गा. 18) इत्यादि गाथाओं में शुद्धता' शब्द से अभिहित किया है। आचार्य समन्तभद्र ने भी 'सम्यग्दर्शन शुद्धः संसारशरीरभोगनिर्विण्णः' (र.क.श्रा. 5/16) 'सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यङ् -नपुंसकस्त्रीत्वानि' (र.क.श्रा.1/35) इन कारिकाओं में ऐसा ही किया है। यहाँ शुद्ध शब्द का अर्थ शुद्धोपयोग नहीं है। ___ "णग्गत्तणं अकजं भावणरहियं जिणेहिं पण्णत्तं' (भावपाहुड/गा. 55) इस गाथा में भी आचार्य कुन्दकुन्द ने भावनग्नत्वरहित द्रव्यनग्नत्व को अकार्यकारी बतलाया है। रयणसार की गाथाओं में कुन्दकुन्द के विचारों का गुम्फन कुन्दकुन्द के इन विचारों को रयणसार के कर्ता ने निम्नलिखित गाथाओं में गूंथा है ण हुदंडइ कोहाइं देहं दंडेइ कहं खवइकम्मं । सप्पो किं मुवइ तहा वम्मीए मारिए लोए॥59॥र.सा.। अनुवाद - "जीव क्रोधादि को तो दंडित नहीं करता, देह को दंड देता है, इससे कर्मों का क्षय कैसे होगा? वामी पर दण्डप्रहार करने से क्या साँप मरता है?" पुव्वं जो पंचेदिय तणु मणुवचि हत्थपायमुंडाउ। पच्छा सिरमुंडाउ सिवगइपहणायगो होइ।।69॥र.सा.। अनुवाद-"जो पुरुष पहले पाँचों इन्द्रियों को, शरीर, मन और वचन को तथा हाथ और पैर को मूंड़ता है, (वश में करता है), उसके बाद सिर को मूड़ता है (केशलोच करता है) अर्थात् मुनिलिंग ग्रहण करता है, वही मोक्षमार्ग का नेता बनता है।" अप्पाणं पिण पिच्छइ ण मुणइ ण वि सद्दहइण भावेइ। बहुदुक्खभारमूलं लिंगं घेत्तूण किं करइ ॥77॥ अनुवाद- "जिसको आत्मा का न ज्ञान है, न श्रद्धान है, न उसमें स्थित होने की रुचि है, वह अनेक दु:खों के कारणभूत नाग्न्यलिंग को ग्रहण करके क्या करेगा?" इन गाथाओं में कुन्दकुन्द की उपर्युक्त गाथाओं में वर्णित इस भाव को ही प्रतिबिम्बित किया गया है कि मनुष्य को पहले गृहस्थावस्था में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति द्वारा ख्याति, पूजा, लाभ, और भोगादि की आकांक्षा के परित्याग रूप तथा निन्दा-प्रशंसादि में समभावरूप भावनग्नता को प्रकट करने का अभ्यास करना चाहिए। ही द्रव्यनग्नता अर्थात् मुनिलिंग ग्रहण करना चाहिए। भावनाग्न्य प्रकट हुए बिना द्रव्यनाग्न्य ग्रहण करना कार्यकारी नहीं है। उससे कर्मक्षय नहीं होता, केवल देह दंडित होती है। ___वस्त्र त्यागने के पूर्व मिथ्यात्व-अनन्तानुबन्धि-जनित ख्याति, पूजा, लाभ और भोगों की आकांक्षा, प्रशंसानिन्दादि में राग-द्वेष तथा सप्त भयों एवं अष्ट मदों का त्याग अनिवार्य है, इसका सदृष्टान्त प्रतिपादन आचार्य अमितगति ने 'योगसारप्राभृत' में तथा मल्लिषेणाचार्य ने 'सज्जन चित्तवल्लभ' में इस प्रकार किया है प्रमादी त्यजति ग्रन्थं बाह्यं मुक्त्वापि नान्तरम्।। हित्वापि कञ्चुकं सर्पो गरलं न हि मुञ्चते॥31॥ योगसार प्राभृत। अनुवाद- "प्रमादी मुनि वस्त्रादि बाह्य परिग्रह तो त्याग देता है, किन्तु आम्यन्तर परिग्रह नहीं त्यागता, जैसे सर्प केवल काँचली छोड़ता है, विष नहीं छोड़ता।" किं वस्त्रत्यजनेन भो मुनिरसावेतावता जायते। क्ष्वेडेन च्युतपन्नगो गतविषः किं जातवान् भूतले॥ सज्जन-चित्तवल्लभ। (योगसारप्राभृत /अधिकार ८/कारिका ३१/पं० जुगलकिशोर मुख्तार-कृत व्याख्या में उद्धृत।) 4 जनवरी 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524313
Book TitleJinabhashita 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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