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अनुवाद- "क्या वस्त्र त्यागने मात्र से कोई मुनि बन जाता है? क्या काँचली छोड़ने से कोई सर्प निर्विष होता है?
तात्पर्य यह कि जैसे केंचुली छोड़ने से साँप का विष दूर नहीं होता, वैसे ही वस्त्र त्यागने से मनुष्य की ख्यातिपूजा-लाभ-भोगादि की आकांक्षाएँ विगलित नहीं होतीं, वे सम्यग्दर्शन से ही विसर्जित होती हैं। अतः गृहस्थ मुनिलिंग ग्रहण करने का पात्र तभी होता है, जब उसमें उपर्युक्त भावनाग्न्य प्रकट हो जाय। उसका प्रकटी-करण गृहस्थावस्था में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति एवं अणुव्रतादि के अभ्यास द्वारा ही संभव है। अतः श्रावकावस्था मुनिपद के योग्य बनने की पाठशाला है। शिक्षाव्रतों का यही प्रयोजन बतलाया गया है। तथा श्रावक को अपने पद और शक्ति के अनुसार मुनीश्वरों के आचरण को भी निषेव्य बतलाया गया है। (पुरुषार्थसिद्ध्युपाय / का. 200)।
इस पाठशाला से सारा ज्ञान और वैराग्य लेकर श्रावक आचार्य-परमेष्ठी की शरण में जाता है। तब वे अपना अन्तेवासी बनाकर उसकी परीक्षा करते हैं और उत्तीर्ण होने पर जिनलिंग रूप मुनि-उपाधि प्रदान करते हैं। सम्यग्दृष्टि-गृहस्थ भावगृहस्थ नहीं, मात्र द्रव्यगृहस्थ ।
श्रावकपद कोई मामूली पद नहीं है। सिद्धान्ततः वह परिपूर्ण वैराग्यभाव से युक्त होता है- "सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञान-वैराग्यशक्तिः" (समयसार-कलश 136)। श्रावक सम्यग्दर्शन से शुद्ध और संसार-शरीर-भोगों से निर्विण्ण (विरक्त) होता है, अर्थात् उसकी ख्याति-पूजा-लाभ और भोगादि की आकांक्षा विगलित हो जाती है। वह घर में रहते हुए भी घर से विरक्त होता है-"गेही पै गृह में न रचै, ज्यों जल भिन्न कमल है।" (छहढाला)। इसलिए वह मात्र द्रव्य से गृहस्थ होता है, भाव से नहीं। वह संसारस्थ नहीं, अपितु देशसंयमी होने से देश-मोक्षमार्गस्थ होता है- "गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो मोहिनो मुनेः।" (रत्नकरण्डश्रावकाचार 1/33)। इसलिए वह भावगृहस्थ-शिथिलाचारी मुनियों से हजारगुना श्रेष्ठ होता है। अत: यदि शक्ति के अनुसार विवाहित या अविवाहित श्रावक बनकर अपने को मुनिपद के लिए आवश्यक भावनग्नतारूप अर्हता से युक्त कर लिया जाय और उसके बाद मुनिलिंग ग्रहण किया जाय, तो शिथिलाचार प्रायः दुर्लभ हो जायेगा। सम्यग्दृष्टि गृहस्थ कथंचिद् भावश्रमण ___आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वशत्रुवध आदि की आकांक्षारूप निदानभाव से युक्त मुनि को भाव श्रमणत्व को अप्राप्त, एवं निदानभावरहित सम्यग्दृष्टि गृहस्थ को भाव श्रमणत्व को प्राप्त बतलाया है। मधुपिंग नामक मुनि के मन में राजा सगर के प्रति शत्रुभाव उत्पन्न हो गया था, जिससे उसने यह निदान किया कि तप के फलस्वरूप उसे ऐसी शक्ति प्राप्त हो कि वह अगले भव में राजा सगर का सकुटुम्ब विनाश कर सके। आचार्य कुन्दकुन्द भावपाहुड़ में कहते हैं कि इस निदान के कारण वह भाव श्रमणत्व को प्राप्त नहीं हुआ
महुपिंगो णाम मुणी देहाहारादिचित्तवावारो।
सवणत्तणं ण पत्तो णियाणमित्तेण भवियणुय॥45॥ भा.पा.। अनुवाद- "हे भव्यजीवों के द्वारा स्तुत मुनि! देखो, मधुपिङ्ग नामक मुनि ने यद्यपि शरीर तथा आहारदिसम्बन्धी क्रियाओं का परित्याग कर दिया था, तथापि वह निदानमात्र से श्रमणत्व (भावश्रमणत्व) को प्राप्त नहीं हुआ।
कुन्दकुन्द ने एक वसिष्ठ नामक जैनमुनि (भावपाहुड / गा. 46) को भी इसी प्रकार के निदानभाव के कारण तथा बाहु नामक (भावपाहुड/गा. 47) एवं द्वीपायन नामक (भावपाहुड/गा. 50) जैन मुनियों को क्रोधकषाय के कारण और भव्यसेन मुनि को (भावपाहुड/गा. 52) आगमविरुद्ध चर्या के कारण भावश्रमणत्व को अप्राप्त बतलाया है।
इसके विपरीत राजपुत्र शिवकुमार (अन्तिम केवली जम्बूस्वामी के तृतीय पूर्वभव के जीव) को गृहस्थावस्था में युवती-पत्नियों के बीच में रहते हुए भी सम्यग्दर्शनजनित वैराग्यभाव एवं ब्रह्मचर्यव्रत से युक्त होने के कारण भावश्रमण एवं परीतसंसारी (अल्पसंसारी) कहा है -
भावसवणो य धीरो जुवईयणवेड्डिओ विसुद्धमई। णामेण सिवकुमारो परित्तसंसारिओ जादो॥1॥ भा.पा.।
जनवरी 2007 जिनभाषित 5
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