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________________ और अष्टमदों का विगलन हो जाता है और इन सब के फलस्वरूप सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, निन्दा-प्रशंसा, स्वर्ण-मिट्टी, लाभ-अलाभ और जीवन-मरण में समभाव आ जाता है तथा कभी-कभी अल्पवस्त्रादि के उपयोग से परीषह-सहन का अभ्यास हो जाता है, तब कहीं वह मुनित्व की देहली (द्वार) पर पहुँचता है, अर्थात् उसमें मुनि की डिग्री (मुनि की उपाधि = मुनिलिंग) प्राप्त करने की अर्हता (qualification) आती है। आचार्य उसे अपने सान्निध्य में रखकर उसकी इस अर्हता की परीक्षा करते हैं और जब वह उत्तीर्ण हो जाता है, तब उसे मुनि की डिग्री अर्थात् नग्नमुद्रारूप मुनिलिंग प्रदान करते हैं। यदि उत्तीर्ण न होने पर भी उसे मुनि की डिग्री प्रदान कर दी जाती है, तो उसे लेनेवाला और देनेवाला दोनों दोषी होते हैं, क्योंकि अनुत्तीर्ण पुरुष नग्न हो जाने पर अपनी मुनि-उपाधि के अनुरूप गुण प्रदर्शित नहीं कर पाता, उसकी प्रवत्तियाँ गृहस्थ के ही समान होती हैं। वह ख्याति, पूजा, लाभ और भोग की आकांक्षा से ग्रस्त रहता है, प्रशंसा-निंदादि में रागद्वेष करता है, जातिगत-भेदभाव रखता है, अत: उसका आचरण मुनिधर्म के विरुद्ध होता है। वह अनेक प्रकार के ढोंग रचता है, मंत्र-तंत्र, ज्योतिष, वैद्यक, लोकप्रिय वक्तृत्व आदि के द्वारा ख्याति-पूजा (प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा) प्राप्त करने की कोशिश करता है, आत्मप्रचार के लिए भाँति-भाँति के हथकण्डे अपनाता है, अपनी सामाजिक उपयोगिता सिद्ध करने तथा मंच-माईक पर एवं पोस्टरों, निमंत्रण-पत्रिकाओं और समाचारों में बने रहने के लिए तड़क-भड़कवाले फिल्मी नृत्य-संगीत-प्रधान खर्चीले कर्मकाण्ड आयोजित कराता है, जिनसे केवल मनोरंजन एवं नाम होता है, दृष्टि, ज्ञान और चारित्र में परिवर्तन रत्तीभर नहीं। वह आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों को अपने साथ रखता है और कदाचित उनके साथ कामाचार करता है। मोबाइल फोन, नेपकिन, टूथब्रश, ब्लेड आदि आधुनिक परिग्रह रखता है, फ्लश लेट्रिन, एयरकण्डीशनर, हीटर आदि परीषहनिरोधी साधनों का प्रयोग करता है, स्नान कर लेता है, ब्रश से दन्तधावन करता है, केशलोच न कर ब्लेड से आधुनिक शैली में दाढ़ी सँवारता है, युवक-युवतियों के बीच हास-परिहासवाले कार्यक्रम करता है। अपने से अधिक ज्ञानी, प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध मुनि या श्रावक से ईर्ष्या करता है, इसलिए उनकी छवि विकृत करने की चेष्टा करता है, निन्दात्मक ग्रन्थ लिखकर, पैम्फलेट छपवाकर उनकी अपकीर्ति फैलाने का प्रयत्न करता है, हीनताबोध एवं महत्त्वाकांक्षा के कारण उनके साथ रह नहीं सकता, इसलिए साथ छोड़कर स्वतन्त्र रहने लगता है। इस पतिताचार से जिनशासन की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचता है, जैनेतरों के बीच जिनशासन की निन्दा होती है। इसलिए मुनि-डिग्रीयोग्य क्वालिफिकेशन (अर्हता) के अभाव में मुनि-डिग्री लेनेवाला और देनेवाला दोनों दोषी होते हैं। ___यदि उपर्युक्त प्रथम प्रकार की भावनग्नता की परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर ही गृहस्थ को मुनि की डिग्री (दिगम्बरमुनि-लिंग) प्रदान की जाती, तो अनेक मुनि इतने ख्याति-पूजा-लोलुप, अभिमानी, ईर्ष्यालु, असहिष्णु, पी.मलगण-तिरस्कर्ता. परिग्रही. धष्ट, स्वच्छन्द, निरंकश. आर्यिकाओं और ब्रह्मचारिणियों को साथ रखने में लज्जा का अनुभव न करनेवाले, आतंककारी, हिंसक (अपने दोष दर्शानेवाले को डराने-धमकाने और पिटवानेवाले) और उन्मार्गी न हुए होते, जितने वर्तमान में दिखाई दे रहे हैं, जिनके कारण जैनधर्म की प्रतिष्ठा खतरे में पड़ गयी है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भावनग्नता के बिना द्रव्यनग्नता को ग्रहण करने के दोषों का वर्णन बार-बार किया है भावेण होइ नग्गो बाहिरलिंगेण किं च नग्गेण। कम्मपयडीण णियरंणासइ भावेण दव्वेण ॥५४॥ भावपाहुड। अनुवाद- "सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति से जो ख्याति-पूजा-लाभ-भोग-प्रशंसादि की आकांक्षा का अभाव होता है, उससे प्रकट होनेवाला आत्मा का शुद्ध भाव (अवस्था) तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से प्रकट शुद्धभाव, इन दोनों भावों से ही मनुष्य यथार्थतः नग्न होता है, कोरी देह की नग्नता से नहीं और कर्मप्रकृतियों का विनाश भावनग्नत्व एवं द्रव्यनग्नत्व, दोनों के योग से होता है। जनवरी 2007 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524313
Book TitleJinabhashita 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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