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________________ सम्पादकीय समता-निःकांक्षिता में अनुत्तीर्ण गृहस्थ मुनि-डिग्री का पात्र नहीं जिनभाषित के प्रस्तुत अंक में पं. वंशीधरजी शास्त्री, एम० ए० का शोध आलेख 'रयणसार के रचयिता कौन' 'जैन सन्देश'/ शोधांक 39/भाग संख्या 50. / दि. 23.02.1978 से उद्धृत किया जा रहा है। इसमें शास्त्री जी ने अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है कि 'रयणसार "के रचयिता आचार्य कुन्दकुन्द नहीं हैं, अपितु यह किसी भट्टारक की कृति है, जिसे उन्होंने अपनी आगमविरुद्ध मान्यताओं को प्रामाणिकता प्रदान करने के लिए कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्ध किया है। मेरा मत है कि आगमविरुद्ध मान्यताओं की उपलब्धि से इसका किसी भट्टारक द्वारा रचित होना आवश्यक नहीं है, किसी शिथिलाचारी मुनि द्वारा भी रचित हो सकता है। पर, इसमें सन्देह नहीं है कि यह आचार्य कुन्दकुन्द की लेखनी से प्रसूत नहीं है। रचयिता ने इसके कुन्दकुन्दकृत होने का भ्रम उत्पन्न करने के लिए उनके विचारों को स्वरचित गाथाओं में गूंथकर ग्रन्थ में यत्र-तत्र विन्यस्त किया है। इससे आगमविरुद्ध मान्यताओं के साथ आगमोक्त सिद्धान्त भी क्वचित् सरल भाषा में प्रतिपादित हुए हैं। इस पर एक दृष्टिपात किया जा रहा है। कुन्दकुन्द की दृष्टि में सम्यग्दृष्टि गृहस्थ कथंचिद् भावनग्न निम्नलिखित गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द ने जिनागम के हस महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त पर प्रकाश डाला है कि मनुष्य को जिनाज्ञा के अनुसार पहले गृहस्थवेश में रहते हुए मिथ्यात्वादि दोषों का परित्याग कर भाव से नग्न होना चाहिए, तत्पश्चात् द्रव्य से नग्नता प्रकट करनी चाहिए, अर्थात् द्रव्यमुनिलिंग ग्रहण करना चाहिए भावेण होइ णग्गो मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं। पच्छा दव्वेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए॥73॥भावपाहुड। यहाँ मिथ्यात्वादि दोषों के परित्याग को भाव से नग्न होना कहा गया है। मिथ्यात्वादि दोषों में शंका (सप्तभय), कांक्षा आदि मिथ्यात्वजन्य दोष परिगणित किये गये हैं। ख्याति, पूजा, लाभ और भोगों की आकांक्षा होना, सप्तभय और अष्टमद से ग्रस्त होना तथा प्रशंसा निन्दादि में राग द्वेष करना अर्थात् समभाव से रहित होना मिथ्यात्व के परिणाम हैं। इनका अभाव होने पर मनुष्य भावनग्न होता है। यह सम्यक्त्व से प्रकट होनेवाली प्रथम प्रकार की भावनग्नता है। दूसरे प्रकार की भावनग्नता (भावलिंग) प्रत्याख्यानावरणकषाय-क्षयोपशमरूप होती है, जो सम्यक्त्वसहित द्रव्यलिंग (नग्नमुद्रा) ग्रहण करने पर प्रकट होती है, जैसा कि श्रुतसागरसूरि ने स्पष्ट किया है ___ "जिनसम्यक्त्वेन सम्यक्त्वश्रद्धानरूपेणेति बीजाङ्करन्यायोनोभयं संलग्नं ज्ञातव्यम्। भावलिङ्गेन द्रव्यलिङ्ग, द्रव्यलिङ्गेन भावलिङ्गं भवतीत्युभयमेव प्रमाणीकर्तव्यम्। एकान्तमतेन तेन सर्वं नष्टं भवतीति वेदितव्यं । अलं दुराग्रहेणेति।" (श्रुतसागरटीका/भावपाहुड/गा.73)। ____अनुवाद- "जिनसम्यक्त्व अर्थात् सम्यक्श्रद्धानरूप भावलिंग की अपेक्षा बीजांकुरन्याय से भावलिंग और द्रव्य-लिंग को परस्पर संलग्न जानना चाहिए। अर्थात् जिस प्रकार बीज के बिना अंकुर और अंकुर के बिना बीज नहीं होता, उसी प्रकार भावलिंग के बिना द्रव्यलिंग और द्रव्यलिंग के बिना भावलिंग नहीं होता। एकान्तमत से सम्पूर्ण सिद्धान्त नष्ट हो जाता है। अत: दुराग्रह नहीं करना चाहिए।" वस्त्रत्याग के बिना भावसंयम नहीं होता (धवला/ष.खं./पु.1/1,1,92/Y.335) और सम्यग्दर्शन के बिना वस्त्रत्याग-प्रेरक वैराग्य (नि:कांक्षितत्व) प्रकट नहीं होता। इसलिए सम्यग्दर्शनजन्य नि:कांक्षितत्व आदि गुण प्रथम प्रकार की भावनग्नता या भावलिंग है तथा सम्यक्त्वसहित-द्रव्यलिंग-ग्रहण से प्रकट भावसंयम द्वितीय प्रकार की भावनग्नता या भावलिंग है। अभिप्राय यह कि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति से जब गृहस्थ में नि:कांक्षितत्व, निःशंकितत्व आदि गुण प्रकट होते हैं, अर्थात् ख्याति, पूजा, लाभ और भोगों की आकांक्षा (तात्पर्यवृत्ति/समयसागर/गा. 78) समाप्त हो जाती है, सप्तभयों 2 जनवरी 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524313
Book TitleJinabhashita 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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