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________________ जिज्ञासा समाधान जिज्ञासा- दूसरी प्रतिमाधारी को भोगोपभोगपरिमाणव्रत के अंतर्गत 17 नियम प्रतिदिन लेने होते हैं । उनको बताइये । समाधान- भोगोपभोगपरिमाणव्रत के अंतर्गत प्रतिदिन निम्न 17 नियम लेने चाहिये 11. इतने आभूषण पहिनूँगा । 12. इतने वस्त्र पहिनूँगा । 13. इतनी सवारियों का प्रयोग करूँगा । 14. सोने में इतने पलंग, गद्दा आदि का प्रयोग करूँगा । 15. इतने मेज कुर्सी आदि का प्रयोग करूँगा या नहीं। 16. फल सब्जी केवल इतनी लूँगा । 17. अन्य वस्तु इतने प्रकार की रखूँगा । प्रश्नकर्त्ता - श्री कामता प्रसाद जी मुजफ्फरनगर जिज्ञासा - नवनीत को अभक्ष्य कहा है, फिर उससे बना घी भक्ष्य कैसे हो सकता है? समाधान - 1. नवनीत के संबंध में सागारधर्मामृत में इस प्रकार कहा है मधुवन्नवनीतं च, मुंचेत्तत्रापि भूरिशः । द्विमुहूर्तात्परं शश्वत् संसजन्त्यंगिराशयः ॥ 2-12 ॥ अर्थ - मधु की तरह मक्खन को भी छोड़ना चाहिये, क्योंकि मक्खन में भी दो मुहूर्त के बाद निरंतर बहुत से जीवसमूह उत्पन्न होते रहते हैं । Jain Education International पं. रतनलाल बैनाड़ा 2. श्री अमितगति श्रावकाचार (5-36) में इस प्रकार कहा है 1. आज में इतनी बार खाऊँगा । 2. आज इतने रस ग्रहण करूँगा । 3. पीने की वस्तु कौन-कौन और कितनी बार लूँगा । हम नहीं जानते । 4. चंदन आदि का उबटन इतनी बार लगाऊँगा । 5. फूलमाला आदि का इतनी बार प्रयोग करूँगा। 6. इलायची आदि इतनी बार खाऊँगा । 7. इतने गीत आदि सुनूँगा । 8. इतनी बार वाद्ययंत्र बजाऊँगा या सुनूँगा। 9. ब्रह्मचर्य इस प्रकार पालूँगा। 10. इतनी बार स्नान करूँगा । यन्मुहूर्तयुगलं परं सदा, मूर्च्छति प्रचुरजीवराशिभिः । तद् गिलंति नवनीतमत्र ये ते व्रजंति खलु कां गतिं मृताः ॥ अर्थ - जिस नवनीत में दो मुहूर्त के पश्चात् प्रचुर जीव-राशि सदा उत्पन्न होती रहती है, उस नवनीत को जो लोग यहाँ पर खाते हैं, वे मरकर कौन सी गति में जाते हैं, यह 3. सागारधर्मामृत की स्वोपज्ञटीका में पं. आशाधर जी ने एक श्लोक और भी दिया है अंतर्मुहूर्तात्परतः, :, सुसूक्ष्मा जन्तुराशयः । यत्र मूर्च्छति नाद्यं तन्नवनीतं विवेकिभिः ॥ अर्थ - जिसमें अंतमुहूर्त के बाद सूक्ष्म जंतुओं का समूह उत्पन्न हो जाता है, ऐसा नवनीत विवेकी जनों को नहीं खाना चाहिए । उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार यदि मक्खन तुरन्त ही खाया जाय या तुरन्त ही घी बनाने में प्रयोग करें, तो मर्यादित कहा गया है। अतः ऐसी विधि से बनाया गया घी भी भक्ष्य की कोटि में आता है। प्रश्नकर्त्ता - पं. बसंत कुमार जी शिवाड़ जिज्ञासा - निरंतरबंधी और सान्तरबंधी प्रकृति से क्या तात्पर्य है? समाधान- श्री कर्मप्रकृति ग्रंथ पृष्ठ 14-15 पर इस संबंध में इस प्रकार कहा है यासां प्रकृतीनां जघन्यतः समयमात्रं बन्धः उत्कर्षतः समयादारभ्य यावदन्तर्मुहूर्तं न परतः, सान्तरबन्धाः, अन्तर्मुहूर्तमध्येऽपि सान्तरो विच्छेदलक्षणान्तरसहितो बंधो यासां ताः सान्तरा इति व्युत्पत्तेः । अन्तुर्मुहूर्तोपरि विच्छिद्यमानबन्धवृत्तिजातिमत्यः सान्तरबन्धाः इति फलितार्थः । जघन्येनापि या अन्तर्मुहूर्तं यावन्नैरन्तर्येण बन्ध्यन्ते ता निरन्तरबन्धाः । अर्थ- जिन प्रकृतियों का बन्ध जघन्य से एक समय, उत्कृष्ट से समय को आदि करके अन्तर्मुहूर्त से पूर्व तक है For Private & Personal Use Only जनवरी 2007 जिनभाषित 29 www.jainelibrary.org
SR No.524313
Book TitleJinabhashita 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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