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वे सान्तर बन्धी प्रकृतियाँ हैं। अन्तर्मुहूर्त के मध्य में बन्ध- | जैसी होते हुए भी आठ प्रकार के स्वभाव वाली होती हैं, ऐसा विच्छेद होकर पुनः अन्तरसहित बँधनेवाली प्रकृति सान्तर- समझना चाहिए। बन्धी प्रकृति है। जघन्य से भी जो अन्तर्मुहूर्त तक बँधती रहे | जिज्ञासा - क्या कोई देव कर्मभूमि के मनुष्य को अर्थात् अन्तर्मुहूर्त के मध्य में बन्ध होकर जिस प्रकृति में | अपने निवास स्थान में ले जाकर कुछ दिन रोक सकता है? अन्तर नहीं पड़ता, वह निरन्तरबंधी प्रकृति है।
आगम प्रमाण स्पष्ट करें। ___ भावार्थ - एक समय बँधकर दूसरे समय में जिस समाधान - श्री उत्तरपुराण पृ.507 पर इस प्रकार कहा प्रकृति की बंधविश्रान्ति देखी जाती है, वह सान्तरबंधप्रकृति है और जिसका बंधकाल जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त मात्र है, वह 1. ज्ञातजीवन्धराकूतस्तत्सर्वं शान्तिमानयत्। निरन्तरबंधप्रकृति है। श्री धवला पुस्तक 8 पृ. 100 में भी इसी ततो विजयगिर्याख्यम्समारोप्य गजाधिपम्॥382॥ प्रकार कहा है।
2. कुमारं तदनुज्ञानात्स्वावासमनयत् सुहृत्। जिज्ञासा - क्या कार्माण वर्गणा भी आठ प्रकार की स्वगेहदर्शनं नाम सद्भावः सुहृदां स हि॥383॥ होती है या एक प्रकार ही होती है?
अर्थ - उस यक्ष ने जीवन्धरकुमार का अभिप्राय समाधान - उपर्युक्त जिज्ञासा के समाधान में श्री जानकर सर्व उपद्रव शान्त कर दिया। तदनन्तर वह यक्ष देव धवल पु. 14, पृ.553-54 में इस प्रकार कहा है
जीवन्धरकुमार की सम्मति से उन्हें विजयगिरि नामक हाथी ज्ञानावरणीय के योग्य जो द्रव्य है, वे ही मिथ्यात्व
पर बैठाकर अपने घर ले गया। सो ठीक ही है, क्योंकि मित्र आदि प्रत्ययों के कारण पाँच ज्ञानावरणीय रूप से परिणमन
के लिए अपना घर दिखलाना मित्रों का सद्भाव रहना ही है। करते हैं, अन्य रूप से वे परिणमन नहीं करते, क्योंकि वे अन्य
जीवन्धरोऽपि यक्षस्य वसतौ सुचिरं सुखम्। के अयोग्य होते हैं। इसी प्रकार सर्व कर्मों के विषय में कहना
स्थित्वा जिगमिषां स्वस्याज्ञापयघक्षमिङ्गितैः ॥ 387॥ चाहिए।
अर्थ - जीवन्धर कुमार जी उस यक्ष देव के घर में शंका- यदि ऐसा है तो कार्मण वर्गणाएँ आठ हैं, ऐसा
बहुत दिन तक सुख से रहे। तदनन्तर चेष्टाओं से उन्होंने यक्ष कथन क्यों नहीं किया है?
से अपने जाने की इच्छा प्रगट की। उपर्युक्त प्रमाण से स्पष्ट समाधान- नहीं किया, क्योंकि अन्तर का अभाव होने
है कि जीवन्धरकुमार को उनका मित्र यक्षदेव अपने घर से उस प्रकार का उपदेश नहीं पाया जाता है। ये आठ स्वभाव
निवास स्थान ले गया था। और वहाँ जीवन्धर कुमार बहुत वाली वर्गणाएँ पृथक्-पृथक् नहीं रहती हैं, किन्तु मिश्रित
दिनों तक रहे थे। होकर रहती हैं। कहा भी है- "आउगभागो थोवो णामागोदे
जिज्ञासा- क्या श्री कषायपाहुड से पहले ग्रंथ होते थे समो तदो अहिओ।"
या नहीं? अर्थ- इन वर्गणाओं में आयुकर्म स्वभाववाली वर्गणाओं
समाधान - उपर्युक्त जिज्ञासा के समाधान में हमें कोई का भाग कम है, नाम और गोत्र कर्म का भाग उससे अधिक
प्रत्यक्ष प्रमाण तो ज्ञात नहीं होते हैं, परन्तु प्रसंगों से यह ज्ञात है, परन्तु बराबर है।
अवश्य होता है कि ई.पू. में भी ग्रंथों का सद्भाव तो था ही। उपर्युक्त गाथा भाग से जाना जाता है कि आठों ही
. जैसे- 1. आचार्य कुन्दकुन्द को अपने पूर्व भव में वर्गणाएँ भिन्न-भिन्न कर्म प्रकृतिरूप परिणमन करनेरूप
जंगल के एक कोटर में एक शास्त्र रखा हुआ दृष्टिगोचर हुआ, योग्यता रखने वाली हैं। तथापि वे मिश्रित होकर रहती हैं।
जिसमें से कांति निकल रही थी। वह ग्वाला उस शास्त्र को अर्थात् जो वर्गणाएँ ज्ञानावरणीयरूप परिणमन करनेरूप योग्यता
विनयपूर्वक अपने घर ले आया और समय पर उसने वह रखती हैं, वे दर्शनावरणीयरूप परिणमन नहीं कर सकतीं।। शास्त्र एक मुनि मह
| शास्त्र एक मुनि महाराज को भेंट कर दिया। इस ज्ञानदान के अतः पूरे लोक में व्याप्त समस्त कर्मवर्गणाएँ सामान्य से एक | महाप्रभाव से वह ग्वाला अगले भव में आ. कुन्दकुन्द बना।
30 जनवरी 2007 जिनभाषित
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