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________________ महादेश भारत या भारतवर्ष कहलाया । यह जैन पौराणिक । द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल के कारण वे आचार्य संघ के एक बड़े भाग सहित दक्षिणापथ को विहार कर गये, जहाँ कर्णाटक, पुन्नाट आदि प्रदेशों में जैनधर्म के अनेक सुदृढ़ केन्द्र विकसित हुए । भद्रबाहु के आम्नायशिष्य मगधसम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य ने भी गुरु का अनुगमन करके कर्णाटकदेशस्थ कटवप्र नामक पर्वत पर अन्तिम जीवन जैनमुनि के रूप में व्यतीत किया था । अनुश्रुति वैदिक साहित्य एवं ब्राह्मणीय पुराणों से समर्थित है। ऋषभ के उपरान्त समय-समय पर जो अन्य तेईस तीर्थंकर हुए, उन्होंने उसी सदाचारप्रधान योगमार्ग एवं आत्मधर्म का पुन: पुन: प्रचार किया और जैनसंस्कृति का पोषण किया। बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ में अयोध्यापति रामचन्द्र हुए, जिन्होंने श्रमण-ब्राह्मण उभय संस्कृतियों के समन्वय के लिये भागीरथ प्रयत्न किया, अत एव दोनों ही परम्पराओं में परमात्मरूप में उपास्य हुए। इक्कीसवें तीर्थंकर नमि विदेह के जनकों के पूर्वज, मिथिलानरेश थे, जो उस अध्यात्मिक परम्परा के संभवतया आद्य प्रस्तोता थे, जिसने जनकों के प्रश्रय में औपनिषदिक आत्मविद्या के रूप में विकास किया ।" बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ (अरिष्टनेमि ) नारायण कृष्ण के ताऊजात भाई थे। ये दोनों ही जैनपरम्परा के शलाका पुरुष हैं और दोनों ही भारत युद्ध के समसामयिक, ऐतिहासिक नरपुंगव हैं। अरिष्टनेमि ने श्रमणधर्म के पुनरुत्थान का नेतृत्व किया, तो कृष्ण ने उभय परम्पराओं के समन्वय का स्तुत्य प्रयत्न किया । तेइसवें तीर्थंकर पार्श्व (८७७-७७७ ई.पू.) काशी के उरगवंशी राजकुमार थे और श्रमणधर्म - पुनरुत्थानआन्दोलन के सर्वमहान् नेता थे। संभवतया इसी कारण अनेक आधुनिक इतिहासकारों ने तीर्थंकर पार्श्व को ही जैनधर्म का प्रवर्त्तक मान लिया। इसमें सन्देह नहीं कि पार्श्वनाथ अपने समय के सर्वमान्य महापुरुष थे। बौद्ध साहित्य में निगठनातपुत्त (निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र) के नाम से उल्लेखित अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर (५९९-५२७ ईसापूर्व) बुद्धादिक महामानवों के उस महायुग में उत्पन्न सर्वोपरि महामानव थे, जिनका व्यक्तित्व एवं कृतित्त्व ऐतिहासिक दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। श्रमण - पुनरुत्थान-आन्दोलन सफलतापूर्वक निष्पन्न हुआ, उसका अधिकांश श्रेय भगवान महावीर को है। जैनसंघ का पुनर्गठन करके जैनधर्म को जो रूप उन्होंने प्रदान किया, वही गत अढ़ाई सहस्र वर्षों के जैनसंस्कृति के विकास के इतिहास का मूलाधार रहा है। ' भगवान् के निर्वाणोपरान्त उनकी शिष्यपरम्परा के साधु-साध्वियों ने उनके सन्देश को देश के कोने-कोने में प्रसारित किया। उनकी ८वीं पीढ़ी में श्रुतकेवली भद्रबाहु के समयपर्यन्त महावीर का संघ प्रायः अविच्छिन्न रहा, किन्तु Jain Education International दुष्काल की अवधि में जो साधु उत्तरापथ में ही बने रहे, वे स्वभावतः परिस्थितिजन्य शिथिलाचार से अपनी रक्षा न कर सके। मालवा, गुजरात प्रभृति पश्चिमी प्रदेश उनके केन्द्र बनते गये। आचार-विचार की दृष्टि से उन दक्षिणी और पश्चिमी शाखाओं के बीच मतभेद की खाई बढ़ती गई, जिसने कालान्तर में प्रथम शती ई० के अन्तिम पाद में दिगम्बरश्वेताम्बर - सम्प्रदाय-भेद को जन्म दिया। एक तीसरी शाखा का केन्द्र शूरसेन देश की महानगरी मथुरा रही, जो विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों एवं जातियों का भी चिरकाल तक महत्त्वपूर्ण संगमस्थल बनी रही । मथुरा के जैनसंघ ने उपर्युक्त दोनों शाखाओं के बीच समन्वय करने के स्तुत्य प्रयत्न किये। उन्होंने उस महान् सारस्वत-आन्दोलन का नेतृत्व एवं प्रचार किया, जिसके परिणामस्वरूप गुरु-शिष्य परम्परा में मौखिक द्वार से प्रवाहित एवं संरक्षित द्वादशांगुश्रुतरूप जिनागम के अधिक महत्त्वपूर्ण अंशों का पुस्तकीकरण तथा पुस्तकसाहित्य -प्रणयन का प्रवर्त्तन हुआ । १° तदनन्तर, दिगम्बर एवं श्वेताम्बर उभय सम्प्रदायों का प्राय: स्वतन्त्र विकास प्रारम्भ हुआ, संघभेद होते रहे, नये-नये सम्प्रदाय - उपसम्प्रदाय बनते रहे, आचार-विचार में भी देश-कालानुसार परिवर्तन होते रहे, साम्प्रदायिकता बढ़ती गई तथापि जैनसंस्कृति का सर्वतोमुखी संवर्द्धन - परिवर्द्धन भी होता रहा। कभी-कभी और कहीं-कहीं पर्याप्त उत्थानपतन भी हुए । प्रभूत राज्याश्रय और जनसामान्य का समर्थन प्राप्त हुआ, तो सम्प्रदायिक विद्वेष और अत्याचार का शिकार भी होना पड़ा। प्रथम द्वितीय शती ई० से लेकर १८ वीं शती ई० पर्यन्त उत्तरभारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में जैनधर्म का विशेष उत्कर्ष एवं प्रभाव रहा, यों राजस्थान के विभिन्न राज्यों, मध्यभारत, विदर्भ, गुजरात और कर्णाटक जैनसंस्कृति के प्रमुख गढ़ रहे हैं। देश के प्रायः प्रत्येक नगर, राजधानी, For Private & Personal Use Only जनवरी 2007 जिनभाषित 15 www.jainelibrary.org
SR No.524313
Book TitleJinabhashita 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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