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धर्म एवं संस्कृति संरक्षण का दायित्व
आचार्य प्रवर जिनसेन स्वामी (८३७ ई.) के अनुसार | जीववार प्रभृति मान्यताओं में खोजे गये हैं, सिन्धु उपत्यका 'इति इह आसीत् '- यहाँ ऐसा घटित हुआ- इस प्रकार की में जिस ताम्राश्मयुगीन प्रागैतिहासिक नागरिक सभ्यता के घटनावाला एवं कथानकों का निरूपण करनेवाला साहित्य पुरा अवशेष प्राप्त हुए हैं, उसके अध्ययन से एक संभावित 'इतिहास', 'इतिवृत्त' या 'ऐतिह्य' कहलाता है । परम्परागत निष्कर्ष यह निकाला गया है कि उस काल और क्षेत्र में होने से वह 'आम्नाय', प्रमाण पुरुषों द्वारा कहा गया या वृषभ-लांछन, दिगम्बर, योगिराज, ऋषभ की पूजा-उपासना निबद्ध होने से 'आर्ष', सत्यार्थ का निरूपक होने से 'सूक्त' प्रचलित थी। उक्त सिन्धुघाटी सभ्यता को प्राग्वैदिक एवं और धर्म अर्थात् हेयोपादेय विवेक या पुण्य प्रवृत्तियों का अनार्य ही नहीं, प्रागार्य भी मान्य किया जाता है, सुविधा के प्रतिपादक एवं पोषक होने के कारण 'धर्मशास्त्र' कहलाता लिये उसे बहुधा द्राविडीय संस्कृति कह दिया जाता है। है । इस प्रकार इस परिभाषा में इतिहास के तत्त्व, प्रकृति, वैदिकपरम्परा के आद्यग्रन्थ स्वयं ऋग्वेद में अनेक स्थलों तथा उसके सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनैतिक सभी पर ऋषभदेव के आदरपूर्वक प्रत्यक्ष तथा परोक्ष उल्लेख हुए अंगों का समावेश हो जाता है। आज इतिहास का जो विशद, हैं । स्पष्ट नामोल्लेखों के अतिरिक्त, वैदिक संहिताओं में व्यापक अर्थ ग्रहण किया जाता है, उक्त पुरातन जैनाचार्य को प्राप्त अर्हन्, केशी, वातरशनामुनि आदि शब्द ऋषभदेव के भी वह अभिप्रेत था । लिये ही प्रयुक्त हुए प्रतीत होते हैं । भृत्, सत्य, अहिंसा, सदाचार आदि शब्द उनकी विशिष्ट मान्यताओं या प्रस्थापनाओं के और श्रमण, मुनि, यति आदि शब्द उनके अनुसर्त्ताओं के सूचक हैं। वैदिक उल्लेखों या संकेतों का विशदीकरण तथा स्पष्टीकरण पुराणग्रन्थों में किया गया माना जाता है और भागवत, विष्णु, मार्कण्डेय, ब्रह्माण्ड आदि प्रमुख ब्राह्मणीय पुराणों में परमेश्वर विष्णु के अष्टमावतार के रूप में जिन 'नाभेय ऋषभदेव' का वर्णन हुआ है, वे ऋग्वेदादि में उल्लिखित ऋषभ ही हैं, इस विषय में प्रायः कोई सन्देह नहीं किया जाता। इन वर्णनों में और जैन पौराणिक अनुश्रुतियों में उपलब्ध प्रथम तीर्थंकर, आदिदेव, नाभिनन्दन, ऋषभ के वर्णनों में ऐसा अद्भुत साद्दश्य है, जो इस तथ्य को असंदिग्ध बना देता है कि दोनों ही परम्पराओं में अभिप्रेत पुराणपुरुष ऋषभदेव अभिन्न हैं, जो अन्तर है वह इस कारण है कि प्रत्येक परम्परा ने उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपने अपने रंग में रँगने का प्रयत्न किया है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पाषाणकालीन प्रकृत्याश्रित असभ्ययुग (भोगभूमि) का अन्त करके ज्ञान-विज्ञान- संयुक्त कर्म प्रधान मानवी सभ्यता का जनक इन आदि तीर्थंकर ऋषभ को ही माना जाता है। उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत ही इस क्षेत्र के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट् थे और उन्हीं के नाम पर यह
इतिहास, विशेषकर प्राचीन भारतीय इतिहास का आशय भारतीय संस्कृति का यथासम्भव सर्वांग इतिवृत्त है, जिसके अन्तर्गत विवक्षित युग में देश में प्रचलित विभिन्न धर्मों, दर्शनों, समुदायों तथा तत्तद् संस्कृतियों - साहित्य, कला, आचार-विचार, लोक जीवन आदि के विकास का इतिहास समाविष्ट होता है।
जैनपरम्परा भारतवर्ष की, सुदूर अतीत से चली आई, पूर्णतया देशज, सनातन एवं पर्याप्त महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक धारा है। उसके सम्यक्ज्ञान के बिना भारतीय संस्कृति के इतिहास का ज्ञान अधूरा और अपूर्ण रहता है।
ऋषभादि महावीर पर्यन्त चौबीस निर्ग्रन्थ- श्रमण अर्हतकेवलि - तीर्थंकर जिनेन्द्रों द्वारा स्वयं जानी गई, अनुभव की गई, आचरण की गई और बिना किसी भेदभाव के 'सर्वसत्त्वानां हिताय, सर्वसत्त्वानां सुखाय' उपदेशित एवं प्रचारित धर्म व्यवस्था का ही नाम जैनधर्म है। उसके अनुयायी जैन या जैनी, श्रमणोपासक अथवा श्रावक कहलाते हैं। इस निवृत्तिमूलक एवं अहिंसाप्रधान आध्यात्मिक परम्परा द्वारा पल्लवित-पोषित संस्कृति ही जैनसंस्कृति है ।
प्राचीनता- इस परम्परा के मूलस्रोत प्रागैतिहासिक पाषण एवं धातु- पाषण युगीन आदिम मानव सभ्यताओं की ।
14 जनवरी 2007 जिनभाषित
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स्व. डॉ. ज्योतिप्रसाद जी जैन, लखनऊ
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