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________________ शासन केन्द्र, व्यापार एवं व्यवसाय केन्द्र में जैन धर्मानुयायी | रहती है। स्वाध्याय का यदि कदाचित् कहीं कुछ प्रचार बढ़ा सदैव अल्पाधिक संख्या में पाये जाते रहे हैं। अपनी शिक्षा- | है, तो उसका प्रयोग पारस्परिक वाद-विवाद और उठापटक दीक्षा सामान्य समृद्धि और धर्मप्रेम के कारण वे धर्म-दर्शन, | में होता है। विद्वत्सभाओं और पत्र-पत्रिकाओं में भी अपशब्दों ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-कला, आचार-विचार, प्रायः सभी क्षेत्रों | का विनिमय खुलकर होता है। बच्चों में धार्मिक शिक्षा और में अपनी स्पृहणीय सांस्कृतिक बपौती का संरक्षण करते । | संस्कार डालने की जो व्यवस्थाएँ थीं, वे समाप्त हो रही हैं। आये हैं। सम्पूर्ण देश की भावनात्मक एकता के सम्पादन में, | जो धार्मिकमन्य हैं, उन्होंने भी धर्म को ऐहिलोकिक कामनाओं स्वातन्त्र्य संग्राम में तथा राष्ट्र के स्वातन्त्र्योत्तर पुनर्निर्माण में | की पूर्ति और मानकषाय के पोषण का साधन बना लिया है। उनका यथोचित एवं महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। धर्म भी एक व्यवसाय बन गया है। कतिपय पुरानी कुप्रथाएँ वर्तमान स्थिति - चौबीस तीर्थंकरों द्वारा अनुप्राणित, | यदि टूटी हैं, तो अनेक नवीन एवं अधिक निकृष्ट कुप्रथाओं अनगिनत आचार्यपुंगवों, योगीश्वर मुनिराजों, आर्यिका-सतियों | का वेग बढ़ रहा है। पश्चिमी सभ्यता और अंग्रेजी शिक्षा के और धर्मप्राण श्रावक-श्राविकाओं द्वारा चिरपोषित-संरक्षित | दुष्प्रभाव को कोसनेवाली बात पुरानी पड़ गई और तथ्यहीन यह धर्मपरम्परा आज दुर्योग से एक अत्यन्त विषम दौर से | है। भोगपरायणता और स्वार्थपरता इतनी बढ़ गई है कि गुजर रही है। उसके सभी सम्प्रदायों-उपसंप्रदायों की | प्रायः सब धार्मिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्य तिरोहित होते सामाजिक दशा प्रायः समान है। दिगम्बरसमाज पर दृष्टिपात जा रहे हैं। अपने विशिष्ट आचार विचार के लिए जैनों की जो करते हैं, तो पिछले कई सौ वर्षों की अपेक्षा इस युग में सार्वजनिक प्रतिष्ठा थी वह समाप्तप्राय है। दिगम्बरमुनियों, जिनमें दर्जनों आचार्यपद-विभूषित हैं, क्या इस वस्तुस्थिति की जिम्मेदारी विद्वत्परिषद् जैसे आर्यिकाओं और अन्य त्यागियों की संख्या शायद पचास- शास्त्रज्ञ पंडितों के संगठन पर नहीं आती? कम से कम इस गुनी अधिक है। पंडित, विद्वान्, वक्ता, लेखक, पत्रकार विषय में सन्देह नहीं है कि समाज-शरीर में जीर्ण रोगों के सामाजिक कार्यकर्ता और विविध संस्थाएँ भी अनगिनत हैं।। जो प्राणाघातक कीटाणु द्रुतवेग से प्रवेश करते जा रहे हैं, धार्मिक समारोह एवं उत्सव भी आये दिन विशाल पैमाने पर | उनका समुचित निराकरण एवं सम्यक् उपचार विद्वत्परिषद् यत्र-तत्र होते रहते हैं। तथापि, समाज में आचार-विचार की जैसे संगठन ही कर सकते हैं, बशर्ते कि वे वैयक्तिक स्वार्थों भयंकर शिथिलता, वैमनस्य, फूट और विघटन, धर्मभाव का एवं मानापमान की भावनाओं के ऊपर उठकर उक्त दोषों उत्तरोत्तर ह्रास, और धर्म एवं संस्कृति के प्रति एक अजीब एवं त्रुटियों के प्रति जागरूक हों और उनके निराकरण के उदासीनता, उपेक्षा, अवहेलना, बल्कि विमुखता वृद्धिंगत लिये सामूहिक रूप से कटिबद्ध हो जायें। यदि ऐसा नहीं लक्षित हो रही है। धर्म, संस्कृति एवं समाज के सच्चे, नि:स्वार्थ, होता है, तो वह दिन दूर नहीं है, जब इस महान् संस्कृति के नि:स्पृह एवं उत्साही सेवियों की अत्यन्त विरलता होती जा सच्चे अनुयायी ढूँढ़े नहीं मिलेंगे। विद्वान् गृहस्थों का भी रही है। बहुधा ऊपरी वैचारिक मतभेद-जन्य अखाड़े जम रहे मार्गदर्शक होता है और त्यागियों का भी, किन्तु तभी, जब हैं और विद्वान् कहे जाने वालों में भी अपशब्दों का विनिमय उसकी स्वयं की दृष्टि समीचीन हो और धर्म, संस्कृति एवं समाज जोर-शोर से चल रहा है। स्वार्थपरता, ईर्ष्या-द्वेष, मद-मात्सर्य, के लिये उसके हृदय में तड़प हो, अपने तुच्छ स्वार्थों का त्याग भोगप्रवृत्ति और धनोपासना का बोलबाला है। ऐसा क्यों हो करके जब वह उनके हित में सामूहिक रूप से तत्पर हो जाये। रहा है? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? अपनी अमूल्य सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण एवं संवर्द्धन साधुवर्ग, विद्वान् पंडितों,संस्थाओं और धर्मोत्सवों की | की जिम्मेदारी विद्वानों पर ही है। अभूतपूर्व भारी भीड़ के देखते तो स्थिति इसके विपरीत होना | सन्दर्भ चाहिए थी, किन्तु हो यह रहा है कि जिन मंदिरों में दर्शन- | १. इतिहास इतीष्टं तद् इति हासीदिति श्रुतेः। पूजन करनेवालों की संख्या दिन-प्रतिदिन घट रही है। पर्व | इतिवृत्तमथैतिह्यमाम्नायं चामनन्ति तत्॥२४॥ आदि अवसरों को छोड़कर शास्त्रसभाएँ अब प्रायः नहीं ऋषिप्रणीतमाएं स्यात् सूक्तं सून्त शासनात्। होती हैं, जो कहीं होती भी हैं तो श्रोताओं की संख्या अत्यल्प | धर्मानुशासनाच्चेदं धर्मशास्त्रमिति स्मृतम् ॥ २५ ॥ आदिपुराण, सर्ग १। 16 जनवरी 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524313
Book TitleJinabhashita 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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