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उत्तम पात्र को दान देनेवाली जो गाथाएँ है, उन्हें उद्धृत नहीं | आदि क्या है? आज मुनिगण अपने इन शयन, आसन, किया जाता, किन्तु १४ वीं गाथा अवश्य उद्धृत की जाती | उपकरण आदि के नाम पर इतना परिग्रह रखते हैं कि उन्हें है। समणसुत्त में भी उक्त गाथा का समावेश किया है, जब | लाने ले जाने के लिए बड़ी-बड़ी बसें चाहिए। इतने परिग्रह कि उत्तम पात्र को दान देने की प्रेरणा देने वाली न केवल | को रखते हुए वे मुनि निर्ग्रन्थ, दिगम्बर कैसे कहला सकते रयणसार में, अपितु अन्य सभी शास्त्रों में गाथाएँ हैं, किन्तु वे | हैं? गाथाएँ समणसुत्त में नहीं दी गई हैं।
निम्न गाथा में सप्तक्षेत्रों में दान देने का फल इस इस प्रकार की गाथाओं से अपात्रों- मिथ्यादृष्टि, | प्रकार बताया गया हैशिथिलाचारी एवं अनाचारी को प्रोत्साहन एवं समर्थन इह णियसुवित्तबीयं जो ववइ जिणुत्तसत्तखेत्तेसु। मिलता है। ऐसी गाथा कुन्दकुन्द जैसे आगमपरम्परा के सो तिहुवणरज्जफलं भुंजदिकल्लाणपचफलं॥१६॥ संस्थापक की नहीं हो सकती।
"इस लोक में जो व्यक्ति निज श्रेष्ठ धनरूप बीज को ___ मुनि के आहार के पश्चात् प्रसाद दिलानेवाली निम्न | | जिनदेव द्वारा कथित सप्तक्षेत्रों में बोता है, वह तीन लोक के गाथा भी विचारणीय है
राज्यफल पंचकल्याणरूप फल को भोगता है।" जो मुनिभुत्तवसेसं भुंजइ सो भुंजए जिणुवदिळं।
इन सप्तक्षेत्रों का किसी प्राचीन ग्रन्थ में उल्लेख देखने संसार-सारसोक्खं कमसो णिव्वाणवरसोक्खं ॥२१॥ | में नहीं आया। डॉ. देवेन्द्रकुमार जी ने भावार्थ में सप्तक्षेत्र इस
"जो जीव मुनियों को आहारदान देने के पश्चात् | प्रकार लिखे हैं । १. जिनपूजा २. मंदिर आदि की प्रतिष्ठा ३. अवशेष अंश का सेवन करता है, वह संसार के सारभूत | तीर्थयात्रा ४. मुनि आदि पात्रों को दान देना ५. सहधर्मियों को उत्तम सुखों को प्राप्त होता है और क्रम से मोक्ष सुख को | दान देना ६. भूखे प्यासे तथा दुखी जीवों को दान देना ७. प्राप्त करता है।"
अपने कुल व परिवार वालों को सर्वस्वदान करना। क्षुल्लक ज्ञानसागर जी ने अवशेष अंश के लिए | कुन्दकुन्दाचार्य, उनके टीकाकार व अन्य आचार्यों के ग्रन्थों लिखा है कि इस को प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए में क्षेत्र के ये भेद देखने में नहीं आए। प्राचीन ग्रन्थों में उत्तम इसका दानसार में महत्त्व बताया गया है।
मध्यम एवं जघन्य पात्रों के नाम से तीन भेद पात्रों के हैं, फिर अब तक मैंने रयणसार की ४-५ मुद्रित प्रतियाँ देखी
कुपात्र एवं अपात्र हैं। ये सप्तक्षेत्र कब से किस शास्त्रकार ने है। उनमें यह गाथा उक्त रूप में ही लिखी गई है। समणसुत्त मान्य किए हैं, इसका स्पष्टीकरण आवश्यक है। इनमें अन्तिम में भी उक्त गाथा इसी रूप में सम्मिलित की गई है, किन्तु
चार क्षेत्र दत्तियों (पात्रदत्ति, समदत्ति, दयादत्ति और अन्वयदत्ति) अभी डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री द्वारा सम्पादित रयणसार में इस के नाम से आदिपुराण में भरत चक्रवर्ती ने अवश्य बताए हैं। गाथा में आगत 'मुनिभुत्तवसेसं को मुणिभुत्तविसेसं लिखा
पुत्र, परिवार को समस्त धन सम्पदा देना तीनलोक के राज्य गया है। यह परिवर्तन सम्भवत: इसीलिए किया गया है कि फलस्वरूप पंचकल्याणरूप फल अर्थात् तीर्थंकरपद देता है, प्रसाद खाने का जैनपरम्परा से किसी प्रकार औचित्य सिद्ध
ऐसा कुन्दकुन्द या अन्य किसी आचार्य ने नहीं लिखा। सभी नहीं होता, अन्यथा इस परिवर्तन का कारण उन्होंने नहीं
मुनष्य मरते समय या वैसे भी अपनी धनसंपदा पुत्र परिवार बताया।
को दे जाते हैं, क्या वे तीर्थंकरप्रकृति के फल को पाते हैं? निम्न गाथा में मुनि के लिए देय पदार्थों की सूची दी |
ऐसा कथन कर्मसिद्धान्त के सर्वथा विपरीत है। स्वयं डॉ. गई है
देवेन्द्रकुमार जी भी उक्त गाथा से सहमत नहीं दिखते हैं, हिय-मिय-मण्णं-पाणं णिरवज्जोसहिं णिराउलं ठाणं।
इसीलिए उन्होंने भावार्थ में पंचकल्लाणफल' का अर्थ नहीं सयणासणमुवयरणं जाणिज्जा देइ मोक्खरओ॥२३॥
दिया। उत्तम पात्र मुनि को धन देने के लिए कुन्दकुन्द जैसे "मोक्षमार्ग में स्थिर (गृहस्थ) (मुनि के लिए) हितकर
निर्ग्रन्थ तपस्वी कैसे कह सकते थे? उनकी गाथाओं में तो मुनि परिमित अन्नपान, निर्दोष औषधि, निराकुल स्थान, शयन,
को द्रव्य देना पापमूलक ही बताया गया है। आसन, उपकरण समझकर देता है।" (डॉ. देवेन्द्रकुमार जी ने भावार्थ में उपकरण के बाद कोष्ठक में 'आदि' और
गाथा संख्या २ में सम्यग्दृष्टि का निम्न स्वरूप बताया लिखा है)। मुनि के लिए शयन आसन, उपकरण और । है
जनवरी 2007 जिनभाषित 11
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