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________________ 44 पुव्वं जिणेहिं भणियं जहट्ठियं गणहरेहिं वित्थरियं । वाइरियक्कम तं बोल्लइ सो हु सद्दिट्ठी ॥ २ ॥ ' (जो) पूर्वकाल में सर्वज्ञ के द्वारा कहे हुए, , गणधरों द्वारा विस्तारित तथा पूर्वाचार्यों के क्रम से प्राप्त वचन को ज्यों का त्यों बोलता है, वह निश्चय से सम्यग्दृष्टि है ।" सम्यग्दृष्टि का ऐसा लक्षण इसी ग्रंथ में मिलता है, अन्यत्र शायद ही मिले। गृहस्थ के आवश्यक षट्कर्मों में दान का अंतिम स्थान है, किन्तु 'रयणसार' के कुन्दकुन्द दान को देवपूजा से भी पहले मुख्य स्थान देते हैं दाणं या मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा ॥ १० ॥ श्रावक के षट्कर्त्तव्यों का क्रम इस प्रकार है- देवपूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान । दान का अन्तिम स्थान होते हुए भी स्वाध्याय, संयम, तपादि की सर्वथा उपेक्षा कर दान को प्रथम स्थान देना तथा १५५ गाथाओं के ग्रंथ में दान की व्याख्या एवं प्रशंसा में ३०-३१ गाथाएँ लिखना बताता है कि इस ग्रंथकार को दान अतिप्रिय था । भट्टारकगण नाना प्रकारों से धन संग्रह किया करते थे । षट् कर्त्तव्यों में दान को मुख्य एवं प्रथम स्थान देना उसका सर्वोच्च फल तीर्थंकर पद एवं निर्वाण आदि बताना केवल इसीलिए था कि भक्त लोग उन्हें दान देते रहें । मेरा आशय यह नहीं है कि दान का कोई महत्त्व नहीं है। श्रावक के कर्त्तव्यों में उसका अंतिम स्थान है (जो कि तर्कसिद्ध एवं बुद्धिगम्य भी है)। उसको उसके बजाय प्रथम स्थान कैसे दिया गया? इस ग्रंथ में श्रावक के अन्य आवश्यकों, व्रतों, प्रतिमाओं का नामोल्लेख मात्र किया गया है। इस ग्रंथ की ७वीं गाथा में सम्यग्दृष्टि के चवालीस (संपादक के शब्दों में दूषण) न होना बताया है । २५ दोष, ७ व्यसन, ७ भय एवं अतिक्रमण - उल्लंघन ५ इस प्रकार कुल ४४ दोष बताए गए हैं। परम्परा में सम्यग्दृष्टि के २५ दोषों का उल्लेख तो यथाप्रसंग सर्वत्र मिलता है, किन्तु इन ४४ दोषों का उल्लेख अन्यत्र देखने में नहीं आया । कुन्दकुन्दाचार्य के उत्तरवर्ती किसी आचार्य या टीकाकार ने इनका उल्लेख नहीं किया। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि उक्त आचार्यों के समक्ष यह ‘रयणसार' न रहा हो । अतिक्रमण उल्लंघन के ५ अतिचार कौन से हैं, यह भी देखने में नहीं आया। डॉ. देवेन्द्रकुमार ने व्रत नियम के उल्लंघन स्वरूप ५ अतिचार लिखे हैं । १२ व्रतों के ५-५ अतिचार होते हैं, सो वे व्रत-नियम के ५ अतिचार कौन से हैं, यह स्पष्ट किए जाने 12 जनवरी 2007 जिनभाषित Jain Education International की आवश्यकता है। मुनि के लिये विभिन्न वस्तुओं में ममत्व का निषेध इस प्रकार किया गया है वसदी पडिमोवयरणे गणगच्छे समयसंघजाइ कुले । सिस्सपडिसिस्सछत्ते सुयजाते कप्पडे पुत्थे ॥ १४४ ॥ पिच्छे संत्थरणे इच्छासु लोहेण कुणइ ममयारं । यावच्च अट्टरुद्दं ताव ण मुंचेदी ण हु सोक्खं ।। १४५ ।। (यदि साधु) वसतिका में, प्रतिमोपकरण में, गणगच्छ में, शास्त्र, संघ, जाति, कुल में, शिष्यप्रतिशिष्य छात्र में, सुत - प्रपौत्र में, कपड़े में, पोथी में, पीछी में, विस्तर में, इच्छाओं में, लोभ से ममत्व करता है और जब तक आर्त्तरौद्र ध्यान नहीं छोड़ता है, तब तक सुखी नहीं होता है। क्या दिगम्बर जैन साधु कपड़े, प्रतिमोपकरण, विस्तर आदि रखता है, जो उनके प्रति ममत्व का फल बताया गया है । ये गाथाएँ किसी अदिगम्बर द्वारा लिखी हुई हों, तो कोई आश्चर्य नहीं है। उक्त गाथा में प्रयुक्त 'गण-गच्छ' का गठन कुन्दकुन्द के बहुत काल बाद हुआ है। उमास्वामी ने अपने सूत्र २४ अध्याय ९ में गणशब्द का प्रयोग उक्त गणगच्छ के नहीं किया है। डॉ. देवेन्द्रकुमार जी ने उमास्वामी के उक्त सूत्र का हवाला देते हुए 'रयणसार' को कुन्दकुन्दकृत ही माना है, किन्तु उनके काल में गण या गच्छों का गठन नहीं हुआ, यह तो निश्चित ही है। उत्तरकालीन रचनाओं में ही गण, गच्छ को प्रयोग मिलता है। इसीलिए डॉ.ए.एन. उपाध्ये, डॉ. हीरालाल जी, पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार सदृश अधिकारी विद्वानों ने इस ग्रंथ को कुन्दकुन्द की रचना मानने में संदेह व्यक्त किया है । ग्रंथकार ने इस रयणसार को न पढ़ने सुनने वाले को मिथ्या दृष्टि बताया है 44 गंथमिणं जो ण दिट्ठइ ण हु मण्णइ ण हु सुणेइ ण हु पढइ । ण हु चिंतड़ ण हु भावइ सो चेव हवेइ कुद्दिट्ठी ॥ १५४ ॥ 'जो व्यक्ति इस ग्रन्थ को नही देखता, नहीं मानता, नहीं सुनता, नहीं पढ़ता, चिंतन नहीं करता, भाता नहीं है, वह व्यक्ति ही मिथ्यादृष्टि होता है । " क्या कुन्दकुन्द जैसे महान् ग्रंथकार इस रचना को न देखने, न पढ़ने, न सुनने, न माननेवाले को मिथ्यादृष्टि बताते ? ऐसी गाथा की रचना तो अपने ग्रन्थ की महत्ता दिखाने के लिए भट्टारक ही कर सकते हैं, न कि संसारत्यागी आत्मसाधना में लीन कुन्दकुन्दाचार्य । इस ग्रंथ में ऐसी ही अन्य गाथाएँ हैं, जिनका सूक्ष्म For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524313
Book TitleJinabhashita 2007 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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