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भी यथाप्रसंग उद्धृत किये गये हैं। अत: उसी प्रकार रयणसार | भी नहीं उगता है, उसी प्रकार अपात्र में दिया गया दान भी की गाथा भी उद्धृत की गई हो तो क्या आश्चर्य है? १८वीं | फल-रहित जानना चाहिए।" १९ वीं शताब्दी में हुए भूधरदास जी एवं पं. सदासुख जी ने | शास्त्रकारों ने मिथ्यादृष्टि को अपात्र कहा है और इसे कुन्दकुन्दकृत कहा है। सम्भव है उस समय कुन्दकुन्द | उसे दान देने का फल इस प्रकार बताया गया है- दर्शनपाहुड का नाम होने के कारण इस ग्रन्थ का विषय, सिद्धान्त, शैली की टीका में लिखा है कि मिथ्यादष्टि को अन्नादिक का आदि का विशेष विवेचन न किया गया होगा और इसे कुन्दकुन्द | दान भी नहीं देना चाहिए। कहा भी है- "मिथ्यादृष्टि को की रचना लिख दी हो, जैसा कि आज भी हो रहा है। कुछ दिया गया दान दाता का मिथ्यात्व बढ़ानेवाला है। इसी प्रकार लोग इस प्रचार के कारण इसे कुन्दकुन्दकृत मान लेते हैं | सागारधर्मामृत में लिखा है-"चारित्राभास को धारण करनेवाले और दूसरे से पूछते हैं कि इसे क्यों नहीं मानते? | मिथ्यादृष्टियों को दान देना सर्प को दूध पिलाने के समान __'रयणसार' को कुन्दकुन्द की रचना सिद्ध करने के | केवल अशुभ के लिए होता है। (२१-६४/१४९)। लिए इसमें मंगलाचरण, अन्तिम पद व कई विषय ऐसे उपासकाध्ययन में उस दान को सात्त्विक कहा गया लिखे गए हैं, जो कुन्दकुन्द की रचना से साम्य को लिए हुए | है, जिसमें पात्र का परीक्षण व निरीक्षण स्वयं किया गया हो प्रतीत हों और दूसरी ओर कुन्दकुन्द एवं दिगम्बरमान्यता से | और उस दान को तामस दान कहा गया है, जिसमें पात्रअसम्मत मत भी इसमें प्रस्तुत कर दिए गए हैं, ताकि लोग | अपात्र का ख्याल न किया गया हो। सात्त्विक दान को उत्तम उन असम्मत मतों को भी कुन्दकुन्दाचार्य कृत मान लें। एवं सब दानों में तामसदान को जघन्य कहा गया है। (८२९
अब 'रयणसार' की ऐसी गाथाओं पर विचार किया | ३१)। जाता है जो आगमपरम्परा, कुन्दकुन्दाचार्य कृत अन्य रचनाओं पाठक विचार करें कि अपात्र के दान का इस प्रकार एवं रयणसार की ही अन्य गाथाओं के विपरीत मान्यता- | का फल होने पर कुन्दकुन्दाचार्य जैसे महान् आचार्य कैसे वाली हैं।
कह देते कि पात्र-अपात्र का क्या विचार करना? दान के प्रसंग में पात्र और अपात्र का विचार न करने वस्तुत: ऐसी गाथा कोई भट्टारक या शिथिलाचारी ही वाली निम्न गाथा उल्लेखनीय है
लिख सकता है, जो चाहता है कि लोग उसे आहारदान देते दाणं भोयणमेत्तं दिण्णइ धण्णो हवेइ सायारो। ही रहें, चाहे उसका आचरण कैसा ही क्यों न हो। उसकी
पत्तापत्तविसेसं संदसणे किं वियारेण ॥१४॥ परीक्षा न करें और एक वार आहार देने पर उसकी फिर "यदि गृहस्थ आहार मात्र भी दान देता है. तो धन्य हो
परीक्षा करना या शिथिलाचारी या अनाचारी मान लेने पर भी जाता है साक्षात्कार होने पर उत्तम पात्र-अपात्र का विचार | उसको प्रकाश में लाना सम्भव नहीं हो सकेगा। करने से क्या लाभ?"
'यशस्तिलक' चम्पू काव्य (आश्वास ८) में उक्त इसी गाथा के आगे १५ से २० वीं गाथा में उत्तम पात्र | १४ वीं गाथा के आशय का निम्न श्लोक मिलता हैको ही दान देने का फल बताया है, न कि अपात्र को दान देने भुक्तिमात्रप्रदाने हि का परीक्षा तपस्विनाम्। का फल। कुन्दकुन्दाचार्य-कृत किसी भी रचना में नहीं ते सन्तः सन्त्वसन्तो वा गही दानेन शुद्ध्यति ॥३६॥ लिखा कि अपात्र को दान देना चाहिए।
उक्त चम्पूकाव्य उत्तरकालीन रचना होने के साथप्रवचनसार की गाथा २५७ में अपात्र को दान देने का | साथ एक काव्यग्रन्थ है, जिसको आचारशास्त्र या दर्शन की फल इस प्रकार बताया है -
मान्यता नहीं दी जा सकती। वैसे सिद्धान्त की दृष्टि से उक्त "जिन्होंने परमार्थ को नहीं जाना है और जो विषय | श्लोक भी आगमपरम्परा के प्रतिकूल ही है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि कषायों में अधिक हैं, ऐसे पुरुषों के प्रति सेवा, उपकार या | गृहस्थ सच्चे साधु को ही वंदनापूर्वक आहार दे सकता है, वह दान कदेव रूप में और कुमानुष रूप में फलता है। असाधु की वंदना नहीं कर सकता। वसुनन्दी श्रावकाचार में २४२ वीं गाथा में अपात्रदान |
आज भी शिथिलाचारियों के विरोध की बात पर का फल निम्न प्रकार लिखा है
उक्त गाथा की दुहाई दी जाती है और उनको दान देने का "जिस प्रकार ऊसर भूमि में बोया हुआ बीज कुछ | समर्थन किया जाता है। 'रयणसार' की अन्य गाथाओं में 10 जनवरी 2007 जिनभाषित
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