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________________ जन्म में नरक के दुःख भोगने पड़ेंगे। जिन पशुओं की हत्या कानूनन जुर्म नहीं है, जिस मांसभक्षण, मद्यपान, परस्त्रीगमन और आवश्यकता से अधिक धनसंचयरूप परिग्रह की कानून में कोई सजा नहीं है, उनसे मनुष्य केवल नरक के भय से बचता है। भाई-बहन, पिता-पुत्री आदि के बीच जो काम-व्यवहार त्याज्य माना जाता है, उसके पीछे धार्मिक विश्वास ही कारण होता है। स्त्री पातिव्रतधर्म का पालन केवल धार्मिक विश्वास के ही कारण करती है। विवाहपूर्व यौनसम्बन्ध भी धर्म में विश्वास होने के ही कारण पाप समझा जाता है। मनुष्य अपने प्राण देकर भी दूसरे के प्राणों की रक्षा इस धार्मिक विश्वास के कारण करता है कि उसे पुण्य लगेगा और अगले जन्म में सुख प्राप्त होगा। दिगम्बरत्व दिगम्बरजैन धर्मावलम्बियों के धार्मिक विश्वासों की नींव है। दिगम्बरमुनियों के लिए दिगम्बरत्व के परित्याग की सलाह देकर यदि उसे ढहा देने की कोशिश की गयी, तो दिगम्बरजैनों के लिए नैतिक आचरण के औचित्य का कोई आधार नहीं रहेगा। किसी के मस्तिष्क में बलपूर्वक कोई दूसरे विश्वास ढूंसे नहीं जा सकते। दिगम्बरत्व के विषय में गाँधी जी का मत अग्राह्य राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने 'नवजीवन' (३१ मई १९३१) में दिगम्बर मुनियों के लिए वस्त्रधारण का जो औचित्य बतलाया था, उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। गाँधी जी एक राष्ट्रनेता थे। देश की आजादी और उत्थान के लिए उनके द्वारा दर्शाया गया मार्ग अत्यन्त उपयुक्त था। इसके लिए हम सब देशवासी उनके ऋणी हैं और वे हमारे लिए वन्दनीय एवं आदरणीय हैं । किन्तु धार्मिक विश्वासों का सम्बन्ध ईश्वर, तीर्थंकर, भगवान्, खुदा और गॉड (The God) से होता है, अतः धर्म के विषय में उनके ही उपदेश सर्वोपरि होते हैं। दिगम्बरत्व तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट मोक्ष का मार्ग है और अत्यन्त युक्तिसंगत एवं विज्ञान-मनोविज्ञान-सम्मत है। इसलिए कोई भी दिगम्बर जैन उस उपदेश के विरुद्ध किसी भी विचार को उचित नहीं मान सकता। दिगम्बरत्व के औचित्य का प्रतिपादन ऊपर किया जा चुका है। स्व० बैरिस्टर चम्पतराय जी जैन, जैनधर्म के महान् विद्वान् एवं उच्चकोटि के विधिवेत्ता हुए हैं। उन्होंने गाँधी जी के उक्त विचार से असहमति व्यक्त करते हुए एक पत्र उनके लिए लिखा था, जिसमें अनेक प्रमाणों से दिगम्बरत्व का औचित्य सिद्ध किया था। गाँधी जी ने उस पत्र का उत्तर भी दिया था, किन्तु वे अपने ही विचारों पर कायम रहे। बैरिस्टर चम्पतराय जी ने गाँधी जी के उस उत्तर का भी प्रत्युत्तर दिया था। उन सबको 'जिनभाषित' के प्रस्तुत अंक में प्रकाशित किया जा रहा है। 'शोधादर्श' के मान्य सम्पादक की टिप्पणी पर दो शब्द ____ जहाँ तक 'शोधादर्श'-५५ (मार्च २००५ ई.) के मान्य सम्पादक की टिप्पणी की बात है, वह कितनी गलत है, यह उक्त पत्रिका के प्रधान-सम्पादक स्व० श्री अजितप्रसाद जी जैन के अग्रज तथा सहसम्पादक श्री रमाकान्त जी जैन एवं सम्पादन-सलाहकार डॉ० शशिकान्त जी जैन के पूज्य पिता जी और जैनदर्शन के महान् विद्वान् परमादरणीय स्व० (डॉ०) ज्योतिप्रसाद जी जैन के लेख 'दिगम्बरत्व का महत्त्व' से भली भाँति स्पष्ट हो जाता है। इस लेख को भी हम 'जिनभाषित' के इसी अंक में उद्धृत कर रहे हैं। शिथिलाचार से दिगम्बरत्व को खतरा यह अवश्य ध्यान देने योग्य है कि इस अत्यन्त प्राचीन महान् दिगम्बरजैन परम्परा को वर्तमानकाल के कतिपय शिथिलाचारी मुनियों के पतिताचार से खतरा है। इसे हमें पूरी दृढ़ता से रोकना होगा। प्रत्येक श्रावक का यह कर्त्तव्य है कि वह इस बात के लिए मुनियों को विवश करे कि किसी भी मुनिसंघ में आर्यिकाएँ और ब्रह्मचारिणियाँ न तो साथ में रहें, न साथ-साथ विहार करें तथा जो मुनि २८ मूलगुणों का जान-बूझकर तिरस्कार करें, केशलोच न कर ब्लेड से दाढ़ी बनायें, स्नान करें, ब्रश से दाँत साफ करें, मोबाइल फोन रखें, हीटर और ए.सी आदि का प्रयोग करें और इसी प्रकार के मुनिधर्म -विरुद्ध अन्य कार्य करें, उन्हें कोई भी श्रावक मुनि न माने और और उनकी वन्दना आदि न करे। इस महान् दिगम्बरजैन धर्म की रक्षा के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है। रतनचन्द्र जैन 8 दिसम्बर 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524312
Book TitleJinabhashita 2006 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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