SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाँधी जी और चम्पतराय जी के पारस्परिक पत्र राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने 'नवजीवन' (31 मई 1931) में दिगम्बर मुनियों के नग्न विहार के विरोध में जो विचार व्यक्त किये थे, उनके सन्दर्भ में स्व० बैरिस्टर चम्पतराय जी जैन ने पत्र लिखकर गाँधी जी के विचारों को तथ्यविरुद्ध एवं धर्मस्वातन्त्र्य-विरोधी सिद्ध किया था। गाँधी जी ने भी मान्य चम्पतराय जी को उत्तर भेजा था। उसके उत्तर में भी चम्पतराय जी ने गाँधी जी को पत्र लिखा था। शोधादर्श - 55 ( मार्च 2005 ई.) में पृ. 52 पर सम्पादक महोदय ने गाँधी जी के उपर्युक्त विचारों को तो उद्धृत किया है, किन्तु उसके उत्तर- प्रत्युत्तर में लिखे गये बैरिस्टर चम्पतराय जी एवं गाँधी जी के पत्रों को प्रकाशित नहीं किया। यह देखकर भूतपूर्व इंजीनियर, सप्तम प्रतिमाधारी, ब्र. शान्तिलाल जी जैन ने वे तीनों पत्र 'शोधादर्श' के मान्य सम्पादक को भेजे थे, फिर भी उन्होंने उन्हें प्रकाशित करने का कष्ट नहीं किया। यदि प्रकाशित करते, तो प्रबुद्ध पाठकों को पक्ष-विपक्ष के तर्कों का अनुशीलन कर समुचित दृष्टि बनाने का अवसर मिलता। वे तीनों पत्र उपर्युक्त उद्देश्य से नीचे प्रकाशित किये जा रहे हैं । पत्रव्यवहार अँगरेजी में हुआ था। उनका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया जा रहा है। 'नवजीवन' (31 मई 1931 ) में प्रकाशित गाँधी जी के विचार मैं मानता हूँ कि मनुष्य मात्र की आदर्श स्थिति दिगम्बर की है, परन्तु आदर्श मनुष्य सर्वथा निर्दोष होता है, विकारशून्य होता है। ऐसी निर्दोषता के बिना यदि कोई व्यक्ति नंगा घूमता है, तो वह दोषी माना जायेगा । दिगम्बर साधु, यदि निर्विकार हों, तो भी समाज की मर्यादा की रक्षा करना उनका धर्म है। दिगम्बर साधु को शहरों में जाने की आवश्यकता नहीं। यदि आवश्यकता हो, तो कम-से-कम शहर की मर्यादा की रक्षा उन्हें करनी चाहिए। ऐसा न करके यदि वे नग्नावस्था में शहर में प्रवेश करने का आग्रह करें, अथवा श्रावक ऐसी जिद करें, तो मेरी दृष्टि से वह अधर्म होगा। स्वयं मुझे नग्नावस्था प्रिय है। यदि मैं निर्जन में रहता होऊँ, तो नग्नावस्था में ही रहूँ, परन्तु इस विकारमय जगत में नग्नावस्था के सामान्य आचरण हो जाने की सम्भावना कम है। नीति बनाये रखने के लिए किसी भी महापुरुष के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने गुप्तांगों को ढके रहे। यह उसका धर्म है। धर्म को जानने और उसकी रक्षा करनेवाला यह विचार नहीं करता है कि 'यह मेरा अधिकार है'। वह तो सोचता है कि 'यह मेरा कर्तव्य है'। ऐसा सोचनेवाले का नग्न रहना कर्तव्य नहीं हो सकता । कर्तव्य अपरिग्रह का है। अपरिग्रह मानसिक धर्म है। जो साधु सामाजिक कर्तव्य पालन के लिए लंगोटी का भार वहन करता है, वह परिग्रही नहीं, बल्कि संयमी है। जो साधु सामाजिक लज्जा की परवाह किये बिना नग्न विचरण करने का आग्रह करता है, वह स्वेच्छाचारी है। साधु ऐसा काम कभी न करे, जिससे प्रजा की हानि हो । समाज भी उसे ऐसा करने के लिए कभी प्रोत्साहित न करे । ('शोधादर्श - 55', मार्च 2005 ई. से उद्धृत) उक्त विचारों के सन्दर्भ में चम्पतराय जी का गाँधी जी को पत्र : प्रेषक चम्पतराय जैन द्वारा - इंपीरियल बैंक ऑफ इन्डिया 22, ओल्ड ब्रेड स्ट्रीट, लन्दन ई. सी. 2 Jain Education International सम्पादक प्रिय महात्मा जी, हाल ही में प्रकाशित नवजीवन में जैन मुनियों की नग्नता के बारे में सरदार वल्लभभाई पटेल के धर्म-विरोधी दिसम्बर 2006 जिनभाषित For Private & Personal Use Only 1 जुलाई, 1931 9 www.jainelibrary.org
SR No.524312
Book TitleJinabhashita 2006 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy