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परसे।
अधिक सम्माननीय व्रात्यों को परवर्ती वैदिक ग्रन्थों में एक। इच्छानुसार यज्ञ करे अथवा यज्ञ बन्द कर दे अथवा जैसा व्रात्य सुनियोजित रूप में निन्दित रूप में प्रस्तुत किया जाना बड़े यज्ञविधान बताये, वैसा करें। विद्वान् ब्राह्मण व्रात्य से इतना ही आश्चर्य की बात तो है ही, साथ ही ऐसा कार्य अनेक प्रश्नों को | कहे कि जैसा आपको प्रिय लगे, वैसा ही किया जायगा। इस भी जन्म देता है।
व्रात्यकाण्ड के अन्त में कहा है कि 'नमो व्रात्याय' अर्थात् अथर्ववेद में कहा है कि 'जिसके घर व्रात्यब्रुव अर्थात् | आत्मसाक्षात् द्रष्टा उस महान् व्रात्य को नमस्कार है। व्रात्य आत्मध्यानी (योगी) न होते हुए भी अपने को व्रात्य यह पहले ही कहा गया है कि अथर्ववेद के इस व्रात्यकाण्ड कहता है, ऐसा नाममात्र का अतिथि व्रात्य घर पर आ जाये, तो | के सभी सूक्तों का देवता अध्यात्मम् (व्रात्य) है, जिसका सीधा वह उसका यथोचित आदर-सम्मान करे, कुवचन बोलकर उसे | सम्बन्ध अध्यात्मप्रधान श्रमण-संस्कृति से जुड़ता है। वस्तुतः घर से न निकाले। अपितु इस देवता के लिए जल स्वीकार करने | व्रात्य यज्ञविराधी थे। व्रतों तथा आत्म-साधना में उनका दृढ़ की प्रार्थना करता हूँ, इस देवता को निवास देता हूँ, इस देवता को | विश्वास था। उनकी दिनचर्या कठिन थी। जब आर्य लोग इन (आहारादि) परोसता हूँ, ऐसी भावना से उसको भी भोजन | व्रात्यों के सम्पर्क में आये, तो उन्होंने इनके आध्यात्मिक ज्ञान,
साधना तथा उच्च मान्यताओं को देखा, समझा तो, इनकी प्रशंसा इस तरह अथर्ववेद का व्रात्य एक अव्रात्य के प्रति भी | की और इनसे प्रभावित भी हुए।
रूप में वर्णित है. क्योंकि अतिथि के रूप में ये किसी| अथर्ववेद के ही अनसार जो देहधारी आत्मायें हैं जिन्होंने अव्रात्य को भी घर से अपमानित करके भगाना नहीं चाहते - | आत्मा को देह से ढका है. इस प्रकार के जीवसमह समस्त अथ यस्य व्रात्यो व्रात्यब्रवो नामबिभ्रत्यतिथिर्गहानागच्छेत् । कर्षदेनं प्राणधारी चैतन्य सृष्टि के स्वामी व्रात्य कहे जाते हैं। इन व्रात्यों ने न चैनं कषेत्... (अथर्ववेद, १५/२/६/११-१४)। अतः जो | तप के द्वारा आत्मसाक्षात्कार किया। दार्शनिकों की यह धारणा व्यक्ति ऐसे देवता (व्रात्य) की निन्दा करता है, वह विश्वदेवों | भी है कि सांख्यदर्शन के आदि मूलस्रोत व्रात्यों की उपासना में की हिंसा करता है तथा उस देवता (व्रात्य) का सत्कार करने | निहित थे।२ वाला वृहत्साम रथन्तर, सूर्य और सब देवताओं की प्रिय पर्व | तैत्तरीय ब्राह्मण में कहा है- 'यस्य पिता पितामहादि दिशा में अपना प्रिय धाम बनाता है, उसे कीर्ति और यश पुरस्सर | सुरां न पिवेत् सः व्रात्यः' अर्थात् जिसके कुल में पिता, पितामह होते हैं।
आदि ने सुरापान नहीं किया वह 'व्रात्य' है। इस पूरे सूक्त का व्रात्य का निन्दक यज्ञायज्ञिय, साम, यज्ञ, यजमान, पशु देवता तथा इस काण्ड में सभी सूक्तों के देवता अध्यात्मम् व्रात्य और वामदेव्य का अपराधी होता है और जो उस व्रात्य का | लिखा गया है। सत्कार करता है, तो यज्ञायज्ञिय आदि की प्रिय दक्षिण दिशा में इस अध्यात्म से हम आत्मज्ञान की परम्परावादी श्रमणउसका भी प्रिय धाम होता है।
संस्कृति को बीजरूप में यहाँ प्राप्त करते हैं। ये व्रात्य केवल आत्म (ब्रह्म) के रूप में व्रात्य का महत्त्व दर्शाते हुए | भौतिकता का ही ज्ञान नहीं रखते थे, अपितु इन व्रात्यों को कहा गया कि उसके विभिन्न दिशाओं में गमन करने पर जल, देवयान तथा पितृयान-दोनों मार्गों का ज्ञान भी है (अथर्ववेद, वरुण, वैरूप, वैराज, सप्तऋषि, सोम आदि उसके पीछे-पीछे १५/१२/५)। इन्हीं व्रतों को श्रमण-परम्परा में महाव्रत और चले। यह व्रात्य, मरुत, इन्द्र, वरुण, सोम, विष्णु, रुद्र, यम, | अणुव्रत के नाम से कहा गया है। योगदर्शन (३/५३) में ये अग्नि, बृहस्पति, ईशान, प्रजापति, परमेष्ठी तथा आनन्द ब्रह्म | जाति, काल, देश से अनवच्छिन्न सार्वभौम व्रत कहे गये हैं।१३ के रूप में परिवर्तित होता है। यह व्रात्य दिन और रात्रि में सभी इसीलिए डॉ.हॉवर ने भी व्रतों में दीक्षित को व्रात्य कहा के लिए पूज्यनीय है।
है.जिसने आत्मानुशासन की दृष्टि से स्वेच्छापूर्वक व्रत स्वीकार आगे एक विज्ञ व्रात्य की प्रशंसा करते हुए कहा गया है | किये हों, वह 'व्रात्य' है। कुछ विद्वानों ने विभिन्न जातियों के कि यह व्रात्य जिस राजा का अतिथि हो, वह उसका सम्मान | दिगम्बर पवित्र मनुष्यों के संघको व्रात्य कहा है।४ श्री जयचन्द्र
रने से वह राष्ट और क्षेत्र को नष्ट नहीं करता। तद विद्यालङ्कार के अनुसार व्रात्य अर्हतों और चैत्यों के अनुयायी यस्यैवं विद्वान् व्रात्यो राज्ञोऽतिथिर्ग्रहानागच्छेत् । श्रेयांसमेनमात्मनो कहलाते थे।५ प्रसिद्ध विद्वान् आई. सिन्दे ने व्रात्यों को आर्यो से मानयेत् तथा क्षत्राय ना वृश्चते तथा राष्ट्राय ना वृश्चते' (अथर्ववेद, | पृथक् बताते हुए लिखा है कि व्रात्य कर्मकाण्डी ब्राह्मणों से १५/१०/१-२)।
बाहर के थे, किन्तु अथर्ववेद ने उन्हें आर्यों में सम्मिलित ही व्रात्य की महत्ता में आगे कहा है कि यदि यज्ञ करते | नहीं किया, अपितु उनमें से उत्तम साधना करने वालों को समय व्रात्य आ जाय तो याज्ञिक को चाहिए कि व्रात्य की उच्चतम सम्मान भी दिया।
-नवम्बर 2006 जिनभाषित 21
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