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________________ वैदिक व्रात्य और श्रमणसंस्कृति प्रो. (डॉ.) फूलचन्द्र 'प्रेमी' अथर्ववेद और व्रात्य - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और । तस्मिश्चलति ते चलन्ति, यदा स गच्छति राजवत् स अथर्ववेद-वैदिक साहित्य के प्रधान इन चार वेदों में अर्थर्ववेद | गच्छतीत्यादि। न पुनरेतत् सर्वव्रात्यपरं प्रतिपादनम्, अपितु का अनेक दृष्टियों में महत्त्व है। अथर्ववेद के पन्द्रहवें काण्ड का | कञ्चिद् विद्वत्तमं महाधिकारं पुण्यशीलं विश्वसम्मान्य नाम ही व्रात्य-काण्ड है। इसके ऋषि अथर्वा, देवता अध्यात्मम् | कर्मपराह्मणैर्विद्विष्टं व्रात्यम्, अनुलक्ष्य वचनमिति मन्तव्यम्।" व्रात्य कहे गये हैं। इस व्रात्यकाण्ड में व्रात्यों की जितनी प्रशंसा, भाष्यकार सायणाचार्य द्वारा व्रात्यकाण्ड पर मात्र संक्षेप गौरवपूर्ण सम्मान और महत्ता आदि वर्णित है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ भूमिका रूप कथन करके आगे भाष्य लिखने के प्रति रहस्यपूर्ण है। इस व्रात्य काण्ड के अध्ययन के पश्चात् जर्मन विद्वान् डॉ. | ट के अध्ययन के पश्चात जर्मन विटान डॉ | मौर पर टिप्पणी करते हए डॉ. सम्पूर्णानन्द जी ने लिखा है किहावर ने लिखा है कि 'यह प्रबन्ध प्राचीन भारत के ब्राह्मणेतर | 'सायण द्वारा व्रात्यों के लिए भूमिका में कही गयी बातें भले ही आर्य-धर्म को मानने वाले व्रात्यों के उस बृहद् वाङ्मय का | सत्य हों, किन्तु अपर्याप्त हैं। उन्हें यह बतलाना चाहिए था कि कीमती अवशेष है, जो प्रायः लुप्त हो चुका है। यहाँ वर्णित | स्तुति में क्या कहा गया है? 'उसने अन्त में सोना देखा' उस व्रात्य कोई साधारण व्यक्ति नहीं, अपितु इसने अपने पर्यटन में | व्रात्य का 'इन सबका अमृतत्व एक है, आहुति ही है- जैसे प्रजापति को शिक्षा और प्रेरणा दी। यहाँ प्रजापति के लिए | अनेक मन्त्र हैं, जो व्याख्या की अपेक्षा करते हैं। सायण ने चाहे व्रात्य द्वारा शिक्षा दिया जाना उसकी अत्यधिक महत्ता की ओर | जिस कारण से व्याख्या न की हो, किन्तु अर्थबोध के लिए सङ्केत करता है। स्पष्टीकरण आवश्यक है। पाश्चात्य विद्वान् भी कुछ स्थिर न इसे एक आश्चर्य ही कहा जायगा कि सम्पूर्ण अथर्ववेद | कर सके। आर्य समाज के पण्डितों ने अधिक सफल प्रयास , के भाष्यकार सायणाचार्य ने पूरे अथर्ववेद का भाष्य लिखकर | किया, परन्तु देव जैसे शब्दों को सर्वत्र केवल मनुष्यपरक मानने इसे यों ही इसके सूक्तों का खुलासा किया, किन्तु इसके एकमात्र से उनकी व्याख्या कहीं बहुत 'स्थल' हो जाती है। इस व्रात्यकाण्ड को अपने भाष्य से क्यों वर्जित रखा? इसी एक अथर्ववेद में व्रात्य की महिमा - वस्तुतः अथर्ववेद का काण्ड पर भाष्य न लिखकर क्यों छोड़ दिया? यह सभी के लिए | 'व्रात्य' अधिकारी, महानुभाव, देवप्रिय और ब्राह्मण-क्षत्रिय के उत्सुकता की बात है। इसके सम्भावित कारणों पर आगे विचार | वर्चस्व का आधार है। यद्यपि कर्मकाण्डी ब्राह्मण उससे वथा किया जायेगा। द्वेष करते हैं, किन्तु अथर्ववेद में वर्णित 'व्रात्य' देव का भी देव ___ पर यह तथ्य इस काण्ड के प्रारम्भ के कुछ भूमिका | है। इतना ही नहीं, अपितु यह 'व्रात्य' जहाँ जाता है, सारी सृष्टि रूप में मात्र यही अंश लिखकर सायणाचार्य ने क्यों मौन साध और सारे देव उसके पीछे जाते हैं, उसके ठहरने पर ठहर जाते लिया कि इस काण्ड में व्रात्य की महिमा वर्णित है। उपनयनादि हैं और उसके चलने पर चलते हैं। जब कहीं वह जाता है, संस्कारों से डीन परुष वात्य' कहलाता है। ऐसे परुषों को लोग | राजा के समान जाता है। इस तरह यहाँ वर्णित व्रात्य उत्कृष्ट वैदिक यज्ञादि क्रियाओं के लिए अनधिकारी.व्यवहार के अयोग्य विद्वान् तथा सिद्धि- सम्पन्न, जगद्वन्द्य, पुण्यात्मा महापुरुष है, और अनादृत मानते हैं, परन्तु यदि कोई व्रात्य ऐसा हो, जो विद्वान इतना ही नहीं, अपितु उसी व्रात्य को अथर्ववेद में इतनी अधिक और तपस्वी हो तो ब्राह्मण उससे भले ही द्वेष करें, परन्तु वह | ऊँचाई, गौरव एवं पूज्यभाव से प्रस्तुत करना अवश्य ही व्रात्यों सर्वपूज्य होगा और देवाधिदेव परमात्मा क तुल्य होगा। इसी | की महानता का द्योतक है, किन्तु परवर्ती वैदिक-साहित्य में आशय को उन्होंने इस प्रकार लिखा जिस व्रात्य के लिए संस्कारहीन, समाज में व्यवहार के अयोग्य, "अत्र काण्डे व्रात्यमहिमा प्रपंच्यते। व्रात्यो नाम | वर्णसंकर आदि तक कहकर अत्यन्त उपेक्षित और निम्न रूप में उपनयनादि-संस्कारहीनः पुरुषः, सोऽर्थाद् वेदविहिताः । | प्रस्तुत किया गया। यज्ञादिक्रियाः कर्तुं नाधिकारी,नस व्यवहारयोग्यश्च, इत्यादि इस अध्ययन से ऐसा लगता है कि व्रात्यों के प्रति लोगों जनमतमनादत्य, व्रात्योऽधिकारी, व्रात्यो महानुभावो, व्रात्यो| का सहज आकर्षण, इनकी प्रभावना एवं आध्यात्मिक गुणसम्पन्न देवप्रियो, व्रात्यो ब्राह्मणक्षत्रियोर्वर्चसो मृलम्। किंबहुना, व्रात्यो | होने से और आर्यजन कहीं इनके अनुयायी न बन जायें तथा देवाधिदेव एवेति प्रतिपाद्यते। यत्र व्रात्यो गच्छति विश्वं जगद | यज्ञादि क्रियाओं के प्रति आर्यों की विमुखता न हो जाए आदि विश्वे च देवास्तत्र तमनुगच्छन्ति, तस्मिन् स्थिते तिष्ठन्ति, | कारणों की सम्भावना के भयवश ही इनसे प्रभावित हो, इतने 20 नवम्बर 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524311
Book TitleJinabhashita 2006 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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