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इस उपाय से वे बच गये, चोरों के सरदार ने ब्राह्मण । चाहिए, जहाँ वैदिक ग्रन्थों के समान अग्नि की पूजा विहित मानकर उन्हें छोड़ ही न दिया, अभ्यर्थना भी की और एक | बतलाई गई हैसाथी देकर आगे तक पहुँचा दिया।
न स्वतोऽग्नेः पवित्रत्वं देवताभूतमेव वा। बनारसीदास जी जैनधर्म के बड़े मर्मज्ञ थे। यदि उन्हें किन्त्वहद्दिव्यमूर्तीज्यासम्बन्धात्पावनोऽनलः॥८८॥ इस क्रिया पर श्रद्धा होती, तो वे अवश्य ही जनेऊधारी होते।
ततः पूजाङ्गतामस्य मत्वाऽर्चन्ति द्विजोत्तमाः। इससे पता चलता है कि उस समय आगरे आदि के जैनी
निर्वाणक्षेत्रपूजावत्तत्पूजाऽतो न दूष्यति॥८९॥ जनेऊ नहीं पहिनते थे।
व्यवहारनयापेक्षा तस्येष्टा पूज्यता द्विजैः।
जैनैरध्यवहार्योऽयं नयोऽद्यत्वेऽग्रजन्मभिः ॥९०॥ 3. पद्मपुराण आदि कथा-ग्रन्थों में जिन जिन महापुरुषों
अर्थात् अग्नि में न स्वयं कोई पवित्रता है और न के चरित लिखे गये हैं, उनमें कहीं भी ऐसा नही लिखा कि उनका यज्ञोपवीत-संस्कार हुआ या, उन्हें जनेऊ पहिनाया
देवपना, परन्तु अहँत भगवान की दिव्यमूर्ति की पूजा के गया, जब कि उनकी विद्यारम्भ, विवाह आदि क्रियाओं का
सम्बन्ध से वह पवित्र हो जाता है। इसलिए द्विजोत्तम अर्थात्
जैन ब्राह्मण अग्नि को पूजा के योग्य मानकर पूजते हैं और वर्णन किया गया है। कई महापुरुषों ने अनेक प्रसंगों पर जिनेन्द्रदेव की पूजा की है, वहाँ अनेक वस्त्राभूषणों का वर्णन
निर्वाणक्षेत्रों की पूजा के समान इस अग्निपूजा में कोई दोष . भी किया गया है, पर जनेऊ का कहीं भी उल्लेख नहीं है।
भी नहीं है। व्यवहारनय की अपेक्षा उसकी (अग्नि की) 4. श्वेताम्बरसम्प्रदाय के साहित्य में भी यज्ञोपवीत
पूजा द्विजों के लिए इष्ट है और आजकल अग्रजन्मों या जैन क्रिया का विधान नहीं है। श्री वर्द्धमान सूरि के 'आचार
ब्राह्मणों को यह व्यवहारनय व्यवहार में लाना चाहिए। दिनकर' नाम के एक श्वेताम्बरग्रन्थ में जिनोपवीत का वर्णन
इससे साफ मालूम होता है कि वैदिक धर्म की
आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिण अग्नियों की पूजा को ही है, परन्तु वह बहुत पीछे का, वि.सं. १५०० के लगभग का, ग्रन्थ है और संभवतः दिगम्बरसम्प्रदाय के आदिपुराण के
कुछ परिवर्तित रूप में जैन धर्म में स्थान दिया गया है, पर
इसके साथ ही जैनधर्म की मूल भावनाओं की रक्षा कर ली अनुकरण पर ही बनाया गया है। श्वेताम्बर समाज में जनेऊ पहनने का रिवाज भी नहीं है। पहले का भी कोई उल्लेख
गई है। उपर्युक्त श्लोकों के 'अद्यत्वे' (आजकल या वर्तमान नहीं मिलता।
समय में) और 'व्यवहारनयापेक्षा' शब्द ध्यान देने योग्य हैं। संसार का कोई भी धर्म, सम्प्रदाय या पन्थ अपने
इनसे ध्वनित होता है कि यह अग्निपूजा पहले नहीं थी, समय के और परिस्थितियों के प्रभाव से नहीं बच सकता।
परन्तु आचार्य अपने समय के लिए उसे आवश्यक बतलाते उसके पड़ोसी धर्मों का कुछ न कुछ प्रभाव उसपर अवश्य
हैं और व्यवहारनय से कहते हैं कि इसमें कोई दोष नहीं है। पड़ता है। वह उनके बहुत से आचारों को अपने ढंग से अपना
आचार्य सोमदेव ने अपने यशास्तिलक में लिखा हैबना लेता है और इसी प्रकार उसके भी बहुत से आचारों को
यत्र सम्यक्त्वहानिन यत्र न व्रतदूषणम्। पड़ोसी धर्म ग्रहण कर लेते हैं। जैनधर्म की अहिंसा का यदि
सर्वमेव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः॥ अन्य वैष्णव आदि सम्प्रदायों पर प्रभाव पड़ा है, उसे उन्होंने
अर्थात् सभी लौकिक विधियाँ या क्रियाएँ जैनों के समधिक रूप में ग्रहण कर लिया है, तो यह असंभव नहीं है | लिए मान्य हैं, जिनमें सम्यक्त्व की हानि न होती हो और कि जैनधर्म ने भी उनके बहत से आचारों को ले लिया हो, | व्रता में काई दोष न लगता हो। अवश्य ही जैनधर्म के मूलतत्त्वों के साथ सांमजस्य करके।
इस सूत्र के अनुसार ही अग्निपूजा और यज्ञोपवीत मूलतत्त्वों के साथ वह सामंजस्य किस प्रकार किया जाता है. | की विधियों को जैनधर्म में स्थान मिल सकता है। इसके समझने के लिए आदिपुराण का 40 वाँ पर्व देखना |
'जैनसाहित्य और इतिहास' (प्र.सं.) से साभार
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- नवम्बर 2006 जिनभाषित 19
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