________________
पासत्थ भावणाओ अणाइ कालं अणेय वाराओ । भाऊण दुहं पत्तो कुभावणा भाव बीएहिं ॥ 14 ॥
अर्थात् पार्श्वस्थ आदि भावनाओं को अनादि काल से अनेक प्रकार भाकर इस जीव ने कुभावना के फल से अनेक दुःख उठाये हैं ।
ऊपर जिस पार्श्वस्थ भावना की चर्चा की है, वह भावना 5 प्रकार की है - पार्श्वस्थ, कुशील, संसत्त, अवसन्न और यथाछंद। वास्तव में ये पाँच प्रकार के श्रमणाभास हैं, जिनकी प्रवृत्ति को यहाँ भावना रूप में उल्लिखित किया है। कुन्दकुन्द के समय में इनका भी पर्याप्त प्रचार था । इस सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन इस प्रकार है ।
अन्य भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में इनका क्रम इस प्रकार है- अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील, संसत्त, यथाछन्द । जैसा कि निम्न गाथा से प्रकट है
किं पुण जो ओसण्णा णिच्चे जे बावि णिच्च पासत्था । जे वा सदा कुसीला संसत्ता वा जहाछंदा ॥ भ. आ.
इस गाथा में पाँचों श्रमणाभासों का क्रम दिया है। इनमें अवसन्नसाधु उन्हें कहते हैं जो कीचड़ में फँसे हुए मार्गभ्रष्ट पुरुष की तरह आचरण करते हैं। ये उपकरणों में आसक्ति रखते हैं, वसतिका, आसन के प्रतिलेखन में, स्वाध्याय में, विहार भूमि के शोधन में, आहारशुद्धि में, ईर्यासमिति आदि के पालन में, स्वाध्यायकाल के अवलोकन में, स्वाध्याय के समाप्त करने में, चर्या में प्रमादी और अनुत्साहित रहते हैं, षड् आवश्यक पालन करने में आलसी रहते हैं। एकान्त या जनसमुदाय में उन आवश्यकों का पालन करते हुए भी, उन्हें केवल वचन और काय से करते हैं, भावपूर्वक नहीं करते। इस प्रकार चारित्र - पालन में जो कष्ट का अनुभव करते हैं, वे अवसन्न- साधु हैं ।
पार्श्वस्थ साधु का शब्दार्थ है- पास में स्थित अर्थात् जैसे कोई पथिक मार्ग को जानता हुआ भी उस मार्ग से हटकर उसके समानान्तर चले तो वह मार्ग-पार्श्वस्थ कहलाता है, वैसे ही यह पार्श्वस्थसाधु भी निरतिचार संयममार्ग को जानता है, तो भी उसपर नहीं चलता, किन्तु संयममार्ग के समीप चलता है। वह साधु एकान्ततः असंयमी भी नहीं है, और न निरतिचार संयम ही पालन करता है। वसतिका के निर्माता, उसका संस्कार करनेवाले तथा " आप ठहरिये " इस प्रकार कहकर साधु को वसतिका देनेवाले तीनों ही
►
Jain Education International
शय्याधर कहलाते हैं । उनके यहाँ नित्य आहार लेना (जो नहीं लेना चाहिये), आहार के पूर्व और पश्चात् दाता की प्रशंसा करना, उत्पाद एषणा आदि दोषों से दूषित आहार ग्रहण करना, नित्य एक ही वसति में रहना, एक ही संस्तर पर सोना, एक ही क्षेत्र में रहना, गृहस्थों के घर के या अन्दर बैठना, गृहस्थों के उपकरणों से अपना काम करना, दुःप्रमार्जित या अप्रमार्जित वस्तु ग्रहण करना, सुई, कैंची, नखच्छोटिका (नहनी), संडासी, सिल्ली, उस्तरा, कर्णमल निकालने की सींक, चमड़ा इत्यादि ग्रहण करना। सीना, धेना, झटकना, रंगना आदि कामों में लगे रहना, ये सब पार्श्वस्थसाधु के लक्षण हैं। जो क्षार, चूर्ण, सौवीर, नमक, घी आदि पदार्थों का अपने साथ रखते हैं, वे भी पाईवस्थ हैं । उपकरणबकुश साधु जो रात्रि में यथेष्ट शयन करते हैं, इच्छानुसार संस्तर का खूब उपयोग करते हैं, वे भी पाईवस्थ साधु हैं तथा दिन में सोनेवाले देहबकुश साधु भी पार्रवस्थ हैं। जो पैर धोते हैं, तेल की मालिश करते हैं, गण का पोषण कर आजीविका करते हैं, वे पार्रवस्थ साधु हैं।
कुत्सितशीलवाले साधु कुशील कहलाते हैं। ये कुशील साधु अनेक प्रकार के होते हैं, इनमें कोई कौतुकशील साधु होते हैं, जो औषधि विलेपन एवं विद्याओं के प्रयोग से राजद्वारों पर कौतुक दिखाकर सौभाग्य प्राप्त करते हैं । कोई भूतिकर्मकुशील होते हैं, जो मंत्रित की गई भूति से, धूलि से, सरसों से, फूलों से, जल से किसी की रक्षा या किसी को वश में करते हैं। कोई प्रसेनिकाकुशील होते हैं, जो अंगुष्ठ प्रसेनिका, अक्षरप्रसेनी, प्रदीपप्रसेनी, शशिप्रसेनी, स्वप्नप्रसेनी आदि विद्याओं के द्वारा लोकरंजना करते हैं । कोई अप्रसेनिककुशील होते हैं, जो विद्या, मंत्र, औषध प्रयोगों से असंयमियों की चिकित्सा करते हैं। कोई निमित्त-कुशील होते हैं, जो अष्टांगनिमित्त ज्ञान से लोगों को फलादेश कहते हैं। कोई आजीवकुशील होते हैं, जो अपनी जाति व कुल का प्रकाश कर भिक्षादि प्राप्त करते हैं अथवा किसी के उपद्रव के कारण दूसरे की शरण में जाते हैं या अनाथशाला में प्रवेशकर अपनी चिकित्सा कराते हैं । इसी तरह और भी अनेक कुशील - साधु होते हैं, जो इन्द्रजाल, परद्रव्यहरण आदि के अनेक कौतूहल दिखलाते हैं ।
चौथे संसक्त-मुनि होते हैं, जिनकी दुतरफा प्रवृत्ति होती है अर्थात् चारित्रप्रिय मुनियों में चारित्रप्रेमी बन जाते हैं और अप्रियचारित्रवालों में अप्रिय - चारित्री बन जाते हैं। ये
अगस्त 2006 जिनभाषित 7
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org