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________________ नट के समान अनेक रूपों को धारण करते हैं, पंचेन्द्रिय | यथाछन्द मुनि किसी समय भी ठीक आचरण पालनेवाले विषयों में आसक्त रहते हैं, ऋद्धिगारव, रसगारव एवं सातगारव | नहीं हो सकते, उनकी कुछ झाँकी मोक्षपाहुड़ में भी दी है। में आसक्त रहते हैं। स्त्री के विषय में संक्लिष्ट परिणाम | वे लिखते हैं कि "चारित्रमोह से युक्त, व्रत समिति से रहित, रखते हैं, गृहस्थों से अत्यन्त प्रेम करते हैं। अवसन्न मुनियों | शुद्ध भावों से भ्रष्ट कोई ऐसा कहते हैं कि यह काल ध्यान में अवसन्न, पाश्वस्थों में पाश्वस्थ, कुशीलों में कुशील और | के योग्य नहीं है। 'कोई अभव्य पुरुष जो सम्यक्वज्ञानहीन स्वच्छन्दों में स्वच्छन्द बन जाते हैं। यही इनका नट के | और मोक्षमार्ग से वियुक्त है तथा संसारसुखों में अनुरक्त है, समान आचरण है। कहता है यह काल ध्यान करने योग्य नहीं है। लेकिन यह यथाछन्द मुनि - जो आगम के विरुद्ध स्वेच्छाकल्पित | सब गलत है, क्योंकि आज भी भरतक्षेत्र, दुःषमाकाल में पदार्थों का निरूपण करते हैं अर्थात् वर्षा होने पर जल से आत्मस्वभावरत साधु के धर्मध्यान होता है, जो ऐसा नहीं भीग जाना असंयम है, छुरे या कैंची से केशों का कर्तन | मानता वह अज्ञानी है।" (मोक्ष पाहुड़ गाथा 73, 74, 75, कराना कोई दोष नहीं है, क्योंकि जानबूझकर अपने को | 76)। कष्ट देना आत्म-विराधना है, तृणपुंज में भूमिशय्या बनाकर इस तरह अवसन्न, पाश्वस्थ आदि साधु मनमाना उसमें रहने से जीवों को कोई बाधा नहीं होती, उद्दिष्ट भोजन आचरण कर रहे थे। उनके प्रतिरोध का कोई उपाय न था। में कोई दोष नहीं है। आहार के लिये सारे गाँव में घूमने से इन सब स्थितियों को देखकर आचार्य कुन्दकुन्द ने दो तरह जीवहिंसा होती है, अतः किसी एक घर में जाकर भोजन | से प्रयत्न किया। ये प्रयत्न विघटनात्मक और सृजनात्मक करने से साधु को कोई दोष नहीं है; पाणिपात्र से आहार | थे। चारित्र-भ्रष्ट, सम्यक्त्व-शून्य, विकृत वेष बनानेवाले करने से परिशातन दोष आता है, इत्यादि शास्त्र के विरुद्ध | तथा उन्मार्गप्रवृत्ति चलानेवालों की मान्यताओं का खण्डन निरूपण करते हैं। किया और व्यवहारधर्म की उचित व्यवस्था की, साथ ही इस प्रकार इन पाँच श्रमणाभासों के उल्लेख आगम | पंचास्तिकाय, समयसार और प्रवचनसारकी रचना कर में मिलते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द के समय में इनका अत्यधिक | सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के स्वरूप का विकास प्रचार था। अतः कन्दकन्द ने पाश्वस्थ आदि भावनाओं से | विस्तार से किया। अनेक दुःखों का उठाना फल लिखा है। उक्त आचार्य जिस यथाछन्द श्रमणाभासों के वर्णन में यह लिख आये हैं कि ये 'बाबूलाल जैन जमादार अभिनन्दनग्रन्थ' से साभार फूल नहीं कांटे सर्दी का समय था। एक दिन प्रातःकाल आचार्यश्री के पास कुछ महाराज लोग बैठे हुए थे। ठण्डी हवा चल रही थी, ठण्ड लग रही थी, शरीर में कँपकँपी उठ रही थी। आचार्यश्री से कहादेखिए आचार्यश्री जी के शरीर से कांटे उठ रहे हैं। आचार्य श्री ने कहा- हाँ शरीर से काँटे ही उठते हैं फूल नहीं। शरीर दुख का घर है। इसके स्वभाव को जानो और वैराग्य भाव जाग्रत करो। शरीर को नहीं, बल्कि शरीर के स्वभाव को जानने से वैराग्य भाव उत्पन्न होता है। मुनिश्री कुंथुसागर-संकलित 'संस्मरण' से साभार 8 अगस्त 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524308
Book TitleJinabhashita 2006 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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