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आदर्श श्रावक
प्राचार्य श्री नरेन्द्रप्रकाश जैन
आज से कोई एक सदी पहले तक उत्तर भारत में | सदगृहस्थ वह है, जो अपने कर्तव्य का पालन करता है। किसी निर्ग्रन्थ संत के दर्शन दुर्लभ थे। 1 जुलाई 1907 के | कर्तव्यपालन ही धर्म है। अपने धर्म का पालन करनेवाले "जैन गजट' अंक 24 में उसके तत्कालीन सुयोग्य सम्पादक गृहस्थ की आचार्य पद्मनन्दि ने 'पूज्यं तद् गार्हस्थ्यं' तथा स्व. श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अपनी वेदना एक कविता | 'तेषां सदगृहमेधिनांगुणवतां धर्मोन कस्य प्रियः' कहकर प्रशंसा में व्यक्त की थी, जिसकी कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं - की है। वे कहते हैं कि धन्य है वह गृहस्थधर्म, जिसमें
साधु का दर्शन कहीं पता नहीं, जिनेन्द्र और जिनवाणी की पूजा, मुनियों की विनय, धर्मात्माओं दिल दुःखी है दुःख सहा जाता नहीं।
की सेवा एवं व्रतों का पालन किया जाता है। ऐसे पवित्र धर्म की चर्चा थी उनसे जा-ब-जा,
गृहस्थधर्म का सम्यक् निर्वाह करते हुए हम अपनी श्रावक धर्म अब ढूँढ़े नजर आता नहीं।
संज्ञा को सार्थक करें, इसी में हमारे जीवन की सफलता है। कौम की किश्ती भंवर में जा फँसी,
हमारे पूज्य सन्तों की प्रेरणा से सन् 1985-86 की साधु तारक बिन तरा जाता नहीं।
समयावधि को श्रावकाचार वर्ष' के रूप में मनाया गया था। जी में आता है कि मैं साधु बनूँ,
उसमें यह कोशिश की गई कि गृहस्थ की एक निर्मलसाधु बिन साधू बना जाता नहीं।
निष्कलुष छवि लोगों के सामने प्रस्तुत हो। इस दरम्यान पत्रयह हमारा सौभाग्य है कि वीतरागता के प्रतीक अनेक
पत्रिकाओं में श्रावकाचार के सम्बन्ध में अनेक लेख लिखे संतों के दर्शन आज हमें सुलभ हैं। उनके निमित्त से हम
गए और कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं। विद्वद्गोष्ठियों एवं चाहें तो अपना आत्मकल्याण कर सकते हैं। समाज में जो
संचार माध्यमों से प्रचार-प्रसार भी खूब हुआ, किन्तु मनुष्य थोड़ा-बहुत संयम का प्रवाह आज जारी है, उसका सम्पूर्ण ।
के ढंग-ढरों में कुछ भी विशेष परिवर्तन दिखाई नहीं दिया। श्रेय हमारी जीवन्त साधु-संस्था को ही है।
आदर्श श्रावक बनने का संकल्प यदि इस अवधि में पूरा हो इधर के कुछ वर्षों में साधुओं की संख्या तो बढ़ी है,।
। बढ़ी है, | सका होता, तो यह गत शताब्दी की एक बड़ी सफलता मानी किन्त आदर्श श्रावकों का टोटा पड़ने लगा है। गलियों और | जाती। एक आदर्श श्रावक ही एक आदर्श नागरिक हो सकता सडको पर जो सैकड़ों की संख्या में चलते-फिरते हुए| है और आदर्श नागरिक ही किसी उन्नत राष्ट की पॅजी होते मानवाकार जीव दिखाई देते हैं, वे सब तो श्रावक कहलाने | हैं। के अधिकारी नहीं हैं। पण्डित-प्रवर आशाधरजी ने लिखा
मानवजीवन पाकर सच्चा श्रावक बनने में ही इस है- श्रणोति गर्वादिम्योधर्ममिति श्रावकः अर्थात् जो श्रद्धापूर्वक पर्याय की सार्थकता है। स्व. महात्मा भगवानदीन ने आदर्श गुरु आदि से धर्म-श्रवण करता है, उसको श्रावक कहते हैं। | श्रावक बनने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण निर्देश इस प्रकार दिये यहाँ विचारणीय यह है कि क्या मात्र श्रवण करनेवाला ही | 'श्रावक' कहलाने का पात्र है ? नहीं! गुरुमुख से उपदेश
1. सच्चा श्रावक बनना है तो निर्भीक बनो। सुनकर जो विचारपूर्वक आचरण करता है, वास्तव में वह है 2. निर्भीक बनना है तो किसी की नौकरी मत करो, श्रावक ! एक आदर्श श्रावक में श्रद्धा, विवेक और आचरण
अपना कोई रोजगार करो। का संगम दृष्टिगत होना चाहिए। 'योगशास्त्र' का कथन है - 3. रोजगार करते हुए संयम का पालन करो। अन्तरंगारिषड्वर्गं परिहारपरायणः,
4. संयम का पालन करना है, तो कुछ नीति-नियमों वशीकृतेन्द्रियग्रामो गृहिधर्माय कल्पते।
से बँधो। लाभ के लिए लोभ की सीमा निर्धारित अर्थात् अन्तरंग शत्रुरूप षड्वर्ग (काम, क्रोध, लोभ, करो। सीमा से अधिक मुनाफा मत कमाओ। मान, मद और हर्ष) का परित्याग करनेवाला तथा इन्द्रियों 5. नीति-नियमों के सूत्र से तभी बँधे रह सकते हो, को वश में करनेवाला मनुष्य गृहस्थ धर्म का धारक होता है। जब किसी कर्तव्य से बँधोगे।
लोकभाषा में गृहस्थ या श्रावक समानार्थक शब्द हैं। 6. कर्तव्य को ही अधिकार मानो। तत्त्ववेत्ताओं ने भी सद्गृहस्थ को ही श्रावक कहा है। एक 7. अधिकारी बनो, अधिकार के लिए मत रोओ।
अगस्त 2006 जिनभाषित 9
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