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________________ आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में श्रमणाभास डॉ. लालबहादुर शास्त्री, दिल्ली आचार्य कुन्दकुन्द अपने समय के युग- | करे, तो उसे पाप लगता है और वह मिथ्यात्व का भागी प्रतिष्ठापक आचार्य हो गये हैं। भगवान् महावीर की परम्परा | होता है। इसका सीधा अभिप्राय यह है कि कुन्दकुन्द के में अनुबद्धकेवलियों के बाद भारतीय आचार्यों की एक समय में कुछ श्रमण थे, जो स्वछन्द विचरण करते थे और लम्बी परम्परा रही है, जिनमें द्वादशाङ्ग के ज्ञाता, 11 अंग | उनके इस स्वच्छन्द विहार पर कुन्दकुन्द को आपत्ति थी। दश पूर्व के ज्ञाता, 11 अंगों के ज्ञाता, 11 अंग का एकदेश भावसंग्रह आदि ग्रन्थों में जिनकल्पी और स्थविरकल्पी ज्ञान रखनेवाले, आचारांङ्ग के ज्ञाता आदि अनेक महाऋषि | इस प्रकार श्रमणों के दो रूपों का वर्णन है। जिनकल्पी मुनि हुए हैं। इस अनुबद्ध परम्परा में यद्यपि आचार्य कुन्दकुन्द का | उत्तम संहनन के धारी होते हैं। पैर में काँटा अथवा आँख में नाम नहीं आता, फिर भी आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रमण धर्म | रजकण जाने पर भी वे स्वयं नहीं निकालते, न किसी से की रक्षा के लिये जो अथक प्रयत्न किये हैं, इससे उनका | निकालने को कहते हैं, सदा एकलविहारी होते हैं। किन्तु अपना स्थान एक पृथक् ही है और वह पृथक्त्व इस बात से | स्थविरकल्पियों को यह आदेश है कि वे संघ में साथ रहकर सिद्ध होता है कि शास्त्र-प्रवचन के प्रारम्भ में जो लम्बा | विहार करें। इस पंचम काल में उत्तम-संहनन के धारी नहीं मंगलाचरण किया जाता है, उसके अन्त में मंगलस्तोत्र करते | होते, अतः स्थविरकल्पी बनकर रहना ही उनके लिये उचित हुए कहा गया है - मार्ग है। अतः जो इस मार्ग को छोडकर स्वच्छन्द विहार मङ्गलं भगवान् वीरो, मङ्गलं गौतमो गणी। करते हैं, वे आ. कुन्दकुन्द की दृष्टि में स्वेच्छाचारी हैं और _मङ्गलं कुन्कुन्दार्यो, जैनधर्मोस्तु मङ्गलम्।। स्वेच्छाचारियों के विषय में उन्होंने बहुत कुछ कहा है। आगे इसी पाहुड़ में उन्होंने सच्चे साधुओं का स्वरूप बतलाते हुए इस श्लोक में भगवान् महावीर एवं गौतम गणधर के पुनः उन श्रमणाभासों की ओर संकेत किया हैबाद आचार्य कुन्दकुन्द का नाम लिया गया है। 12 वर्ष के दीर्घकालीन दुर्भिक्ष के बाद दिगम्बर परम्परा में जो महाविकृति जस्स परिग्गहगहणं अप्पा वहयं च हवइ लिंगस्स। आ गई थी, उसे दूर करने कोई आचार्य सामने नहीं आये थे।। सो गरहिउ जिण वयणं परिगहरहिओ निरायारो॥19।। आचार्य कुन्दकुन्द ही थे जिन्होंने इस विकृतिका सामना अर्थ - जो साधु थोड़ा या बहुत परिग्रह रखता है, वह किया और पाहुड़ ग्रन्थों की रचनाकर मूल श्रमण धर्म को | निन्दनीय है, क्योंकि श्रमण सर्वथा परिग्रह रहित होता है। उजागर किया। यही कारण था कि कृतज्ञ समाज ने बाद में ___णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइतित्थयरो। आचार्य को मूल आम्नाय का प्रतिष्ठापक माना। णग्गो विमोक्खमग्गो, सेसा उम्मग्गया सव्वे॥ इन्हीं आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने समय के अनेक अर्थ - जैनशासन में वस्त्रधारी कभी मोक्ष नहीं जा ऐसे जैन श्रमणों की, जिनकी चर्या शास्त्र के प्रतिकूल थी, सकता, भले ही वह तीर्थंकर क्यों न हो। केवल एक नग्नता आलोचना की है। उन्हें जैन शास्त्रों में श्रमणाभास नाम से ही मोक्षमार्ग है, शेष सब उन्मार्ग है। कहा गया है। उन्होंने अपने अष्ट पाहुड़ ग्रन्थ के अन्तर्गत आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा दिये गये ये प्रकरण बतलाते सूत्रपाहुड़ में निम्न प्रकार उल्लेख किया है - हैं कि कुछ श्रमण नग्नता के प्रतिकूल वस्त्रों को भी अपनाते उक्किट्ठ सीहचरियं वहुपरियम्मो य गरुयभारो य। | थे। सूत्रपाहुड़ में और भी ऐसे ही प्रकरण हैं, जिनसे उस जो विहरइ सच्छंदं पावं गच्छदि होदि मिच्छत्तं॥9॥ समय श्रमणाभासों की बहुलता का बोध होता है। अर्थ -- जिसकी उत्कृष्ट सिंहचर्या है, जो बहुपरिकर्मा इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी श्रमणाभास थे, जिनका है अर्थात् अनेक प्रकार सिंहनिष्क्रीडितादि तपश्चरणों को आगम में स्पष्ट वर्णन है और उनके लक्षण दिये हैं। आचार्य करता है, जिसके ऊपर गुरुभार है अर्थात् जो संघ को सब | कुन्दकुन्द ने भी उनकी ओर संकेत किया है। उनका भावपाहुड़ तरह से निश्चिन्त रखता है, यदि वह भी स्वच्छन्द विहार | देखिये, वे लिखते हैं 6 अगस्त 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524308
Book TitleJinabhashita 2006 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size5 MB
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