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________________ स्थान में तो अपना प्राक्तन (एकसाड़ी-परिधानरूप | साड़ी-मात्र रखकर शेष परिग्रह त्याग देनेवाली आर्यिका औत्सर्गिक) लिङ्ग ही धारण करना चाहिए, किन्तु योग्य | और श्राविका के अल्पपरिग्रहात्मक लिङ्ग को भी उपचार से (विविक्त-एकान्त) स्थान में मुनिवत् नग्नरूप धारण कर | उत्सर्गलिङ्ग नाम दिया गया है। उपचार-महाव्रत-धारिणी, लेना चाहिए। इस प्रकार पं. आशाधर जी ने स्वकल्पित, | उपचारतपस्विनी, उपचारसंयती और उपचार श्रमणी के समान असंगत, आगम-प्रतिकूल व्याख्या से इस भ्रान्त धारणा को | उपचार-उत्सर्गलिङ्ग नाम का व्यवहार युक्तिसंगत भी है। पं. जन्म दिया है कि भगवती-आराधना में भक्तप्रत्याख्यान के | आशाधर जी ने भी यह बात अपनी पूर्वोद्धृत टीका में समय आर्यिकाओं और श्राविकाओं के लिए मुनिवत् | निम्नलिखित शब्दों में स्वीकार की है-"औत्सर्गिकं तपस्विनीनां नाग्न्यलिङ्ग का विधान किया गया है। साटकमात्रपरिग्रहेऽपि तत्र ममत्वपरित्यागादपचारतो नैर्ग्रन्थ्यपं. आशाधर जी ने अपने मत के समर्थन में 'यदौत्सर्गिक | व्यवहरणानुसरणात्।" फिर भी (अपराजित सूरि के -मन्यद्वा लिङ्गं दृष्टं स्त्रियाः श्रुते' इत्यादि श्लोक उद्धृत किया | स्पष्टीकरण एवं आत्म-स्वीकृति के बाद भी) पंडित जी ने है, पर उससे उनके मत का समर्थन नहीं होता, क्योंकि वह | आर्यिका और श्राविका के लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में स्त्रियों भगवती-आराधना की 'इत्थीविय जं लिङ्गं दिलृ उस्सग्गियं | के लिए निर्धारित उपचार-उत्सर्ग-लिङ्ग के स्थान में पुरुषों इदरं वा' गाथा का आचार्य अमितगति-कृत संस्कृत पद्यानुवाद के लिए निर्धारित निश्चय उत्सर्गलिङ्ग ग्राह्य बतलाया है, है। उसमें भी 'यद् दृष्टं श्रुते' शब्दों से यह कहा गया है कि यह आश्चर्य की बात है। यह तो स्पष्टतः भगवतीआराधना स्त्रियों के लिए जो औत्सर्गिक और आपवादिक दीक्षालिङ्ग | की उक्त गाथा में प्रतिपादित अर्थ के प्रतिकूल है। आगम में निर्धारित किए गए हैं, वे ही उनके लिए मृत्युकाल | ६. आर्यिकाओं के प्रसंग में 'पुंसामिव योज्यम्' निर्देश में भी ग्राह्य होते हैं और यतः आगम में उनके लिए सवस्त्र | भी नहीं दीक्षालिङ्ग ही निर्धारित किए गए हैं, अतः उक्त श्लोक में । विजयोदयाटीका में जैसे 'इतरासां पुंसामिव योज्यम्' भी उनके लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में सवस्त्रलिङ्ग ही ग्राह्य | इस वाक्य के द्वारा भक्तप्रत्याख्यानकाल में श्राविकाओं की बतलाया गया है, मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग नहीं। लिङ्गव्यवस्था पुरुषों की लिङ्गव्यवस्था के समान समझ लेने ५. आर्यिका का अल्पपरिग्रहात्मक लिङ्ग ही उपचार से का निर्देश किया गया है, वैसे आर्यिकाओं की लिङ्गव्यवस्था सकलपरिग्रहत्यागरूप उत्सर्गलिङ्ग को पुरुषों की लिङ्गव्यवस्था के समान समझ लेने का निर्देश विजयोदयाटीका में कहा गया है कि श्राविका को | नहीं किया गया है। अत: उनके लिए भक्तप्रत्याख्यान के भक्तप्रत्याख्यान के समय एकांतस्थान में सकलपरिग्रहत्याग | समय एकांतस्थान में मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग ग्राह्य बतलाना -रूप उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण करना चाहिए। संभवतः यहाँ | अप्रामाणिक प्ररूपण है। उत्सर्गलिङ्ग के साथ 'सकलपरिग्रह-त्यागरूप' विशेषण | ७. 'पुंसामिव योज्यम्' का अभिप्राय देखकर पं. आशाधर जी को यह भ्रम हो गया कि भगवती | भगवती-आराधना की 'उस्साग्गियलिङ्गकदस्स' (गा. आराधना में स्त्रियों के लिए एकांतस्थान में मुनिवत् नग्नता- | ७६ या ७७), तथा 'आवसधे वा अप्पाउग्गे' (गा. ७८ या रूप उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण करने के लिए कहा गया है। अपराजित | ७९) इन गाथाओं में कहा गया है कि यदि श्रावक महर्द्धिक सूरि को इस बात का अंदेशा था कि पाठकों को ऐसा भ्रम हो | (अतिवैभवसम्पन्न) है, लज्जालु है अथवा उसके परिवारजन सकता है। अतः उन्होंने उक्त कथन के बाद स्वयं शंका | मिथ्यादृष्टि (विधर्मी) हैं, तो उसे भक्तप्रत्याख्यान के समय उठाकर यह स्पष्ट कर दिया है कि यहाँ एकसाड़ीमात्र | अविविक्त (सार्वजनिक) स्थान में पूर्वगृहीत सवस्त्र अपवाद अल्पपरिग्रह को उपचार से सकल परिग्रह त्यागरूप | -लिङ्ग दिया जाना चाहिए तथा विविक्त (एकांत) स्थान में उत्सर्गलिङ्ग कहा गया है। यथा मुनिवत् नग्नतारूप उत्सर्गलिङ्ग दिया जा सकता है। ___ "विविक्ते त्वावसथे उत्सर्गलिङ्गं वा सकलपरिग्रह अपराजितसूरि ने इन गाथाओं को दृष्टि में रखते हुए त्यागरूपम्। उर्ल्सलिङ्ग कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह- 'इत्थीवि य जं लिङ्गं दिटुं' इस पूर्वोद्धृत गाथा की विजयोदया तदुत्सर्गलिङ्गं स्त्रीणां भवति अल्पं परिग्रहं कुर्वत्याः।" टीका में 'इतरासां पुंसामिव योज्यम्' यह उपर्युक्त वाक्य लिखा अपराजितसूरि के कथन का अभिप्राय यह है कि यद्यपि | है अर्थात् श्राविकाओं की भक्त प्रत्याख्यानकालिक निश्चयनय से तो वस्त्र का भी त्याग कर देनेवाले मुनि का | लिङ्गव्यवस्था पुरुषों (श्रावकों) के लिए उक्त गाथाओं में लिङ्ग उत्सर्गलिङ्ग होता है, तथापि स्त्री के प्रसंग में एक- | निर्धारित व्यवस्था के समान समझनी चाहिए। इसका तात्पर्य जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित / 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524304
Book TitleJinabhashita 2006 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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