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________________ को अपना पूर्वलिङ्ग अर्थात् एक साड़ीरूप | उक्त गाथा से तो उनके नग्न रूप धारण करने का निषेध औत्सार्गिकलिङ्ग ही धारण करना चाहिए। अन्य स्त्रियों | होता है। (श्राविकाओं) का लिङ्ग पुरुषों (श्रावकों) के समान समझना २. तदेव लिङ्ग चाहिए। तात्पर्य यह कि तपस्विनी मृत्यु के समय योग्य विजयोदयाटीका के तदेव भक्तप्रत्याख्याने भवति' (वही (विविक्त = एकान्त) स्थान में वस्त्र का भी परित्याग कर | लिङ्ग भक्तप्रत्याख्यान में होता है), इस वाक्य में प्रयुक्त देती है। किन्तु श्राविका, यदि योग्य स्थान मिलता है, तो वस्त्र | 'एव' शब्द अवधारणात्मक (सीमाबंधन करनेवाला) है। त्यागती है। यदि वह अति वैभवशालिनी है या लज्जालु है | अर्थात् वह स्त्रियों के लिए भक्तप्रत्याख्यान में आगमोक्त अथवा उसके स्वजन प्रचुरमिथ्यादृष्टि हैं, तो वह इसी श्रेणी | दीक्षालिङ्ग के अतिरिक्त अन्य लिङ्ग की ग्राह्यता का निषेध के श्रावकों के समान वस्त्रत्याग नहीं करती, अपने पूर्व | करता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भगवती-आराधना में (बहुपरिग्रहात्मक) लिङ्ग से ही मरण करती है। ऐसा कहा | आर्यिका और श्राविका के लिए भक्तप्रत्याख्यान के समय भी गया है मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग का सर्वथा (एकांत या सार्वजनिक सभी "स्त्री के लिए आगम में जो औत्सर्गिक या आपवादिक स्थानों में) निषेध किया गया है। लिङ्ग कहा गया है, वह मृत्युकाल में परिग्रह अल्प करनेवाली | ३. प्राक्तन लिङ्ग स्त्री के विषय में पुरुष के समान समझना चाहिए।" इसी प्रकार विजयोदया टीका के 'लिङ्गं तपस्विनीनां ___इस व्याख्या में पण्डितजी ने भक्तप्रत्याख्यान के समय | प्राक्तनम्' वाक्य में प्रयुक्त 'प्राक्तनम्' (पूर्वगृहीत) शब्द स्पष्ट आर्यिका और श्राविका के लिए एकान्तस्थान में मुनिवत् | करता है कि आर्यिकाएँ जो लिङ्ग भक्तप्रत्याख्यान के पूर्व नाग्न्यलिङ्ग धारण करने का विधान बतलाया है, किन्तु यह | धारण करती हैं, वही उन्हें भक्तप्रत्याख्यान काल में भी भगवती-आराधना की उक्त गाथा एवं उसकी विजयोदया | धारण करना चाहिए। आर्यिकाएँ भक्तप्रत्याख्यान के पूर्व टीका में प्रतिपादित अर्थ के सर्वथा विरुद्ध है। इसके | एकसाड़ीरूप औत्सर्गिक दीक्षालिङ्ग ही धारण करती हैं, निम्नलिखित प्रमाण हैं - मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग नहीं। अतः 'प्राक्तन' शब्द भी उनके १. आगमोक्त दीक्षालिङ्ग ही भक्तप्रत्याख्यानलिङ्ग लिए मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग के ग्राह्य होने का निषेध करता है। उक्त गाथा और उसकी विजयोदयाटीका में स्पष्ट शब्दों| ४. आर्यिका के प्रसंग में विविक्त-अविविक्त स्थान का में कहा गया है कि स्त्रियों के लिए जो औत्सर्गिक एवं उल्लेख नहीं आपवादिक लिङ्ग आगम में कहे गये हैं, वे ही उनके विजयोदया टीका में जैसे भक्तप्रत्याख्यानाभिलाषिणी भक्तप्रत्याख्यानकाल में भी होते हैं। उपर्युक्त दोनों लिङ्ग | नों लिङ्ग| श्राविकाओं के लिए विविक्त और अविविक्त स्थानों का भेद दीक्षालिङ्ग हैं। स्त्री के लिए कहा गया औत्सर्गिक लिङ्ग | करके अविविक्त स्थान में प्राक्तन लिङ्ग (पूर्वगृहीत आर्यिका का दीक्षालिङ्ग है और अपवादलिङ्ग श्राविका का। | अनेकवस्त्रात्मक अपवादरूप दीक्षालिङ्ग) का तथा विविक्त ये दोनों क्रमश: उपचारमहाव्रतों और अणव्रतों की दीक्षा (एकांत) स्थान में आर्यिकावत् एकसाडीरूप अल्प ग्रहण करते समय ही धारण कर लिये जाते हैं। शिवार्य ने | परिग्रहात्मक औत्सर्गिक -लिङ्ग का विधान किया गया है, स्त्रियों के लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में इन्हीं दीक्षालिङ्गों को | वैसे विविक्त और अविविक्त स्थान का भेद आर्यिकाओं के ग्राह्य बतलाया है। और यह आगमप्रसिद्ध है कि आर्यिका का | प्रसंग में नहीं किया गया है। अतएव उनके लिए प्राक्तन दीक्षालिङ्ग एक-साड़ीपरिधान-रूप होता है तथा श्राविका | औत्सर्गिक लिङ्ग के अतिरिक्त अन्य किसी भी लिङ्ग का का एकाधिक-वस्त्रपरिधान-रूप। अत: यह स्वतः सिद्ध है। विकल्प भगवती-आराधना में निर्दिष्ट नहीं है। कि शिवार्य ने इन्हीं सवस्त्रलिङ्गों को आर्यिका और श्राविका | लिए मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग का विकल्प स्वतः निरस्त हो जाता के लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में ग्राह्य बतलाया है। ___आगम में मुनिवत् नग्नरूप को न तो आर्यिका का दीक्षा | किन्तु पं. आशाधर जी ने विजयोदयाटीका के 'लिङ्गं लिङ्ग कहा गया है, न श्राविका का। अत: यह कल्पना भी तपस्विनीनां प्राक्तनम्' इस वाक्य में अपनी तरफ से 'लिङ्गं नहीं की जा सकती कि भगवती-आराधना में आर्यिका और | तपस्विनीनामयोग्यस्थाने प्राक्तनम्' इस प्रकार ‘अयोग्य स्थाने' श्राविका के लिए भक्तप्रत्याख्यान के समय एकांत स्थान में | पद जोड़कर यह अर्थ उद्भावित किया है कि भक्तप्रत्याख्यान मुनिवत् नग्न रूप धारण करने का विधान किया गया है।। के समय आर्यिकाओं को अयोग्य (अविविक्त सार्वजनिक) 22 / जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524304
Book TitleJinabhashita 2006 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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