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भगवती-आराधना में स्त्रियों के लिए भक्तप्रत्याख्यानकाल में नाग्न्यलिङ्ग का विधान नहीं
प्रो. (डॉ.) रतनचन्द्र जैन भगवती-आराधना की निम्नलिखित गाथा में स्त्रियों के | रखने से स्त्रियों का लिङ्ग उत्सर्गलिङ्ग का कहा गया है। द्वारा भक्त-प्रत्याख्यान (सल्लेखना) के समय धारण किये | उपर्युक्त गाथा और उसकी इस विजयोदयाटीका में जाने योग्य लिङ्गों का वर्णन किया गया है -
कहीं भी यह उल्लेख नहीं है कि स्त्रियों को भक्तप्रत्याख्यान इत्थीवि य जं लिङ्गं दिटुं उस्सग्गियं व इदरं वा। के समय एकान्तस्थान में मुनिवत् नग्नतारूप उत्सर्गलिङ्ग तं तत्थ होदि हु लिङ्गं परित्तमुवधिं करेंतीए॥८०॥ धारण करना चाहिए। किन्तु विद्वानों, मुनियों एवं आर्यिकाओं
अनुवाद-स्त्रियों के भी जो औत्सर्गिक और आपवादिक | में दीर्घकाल से यह धारणा प्रचलित है कि भगवती-आराधना लिङ्ग आगम में कहे गये हैं, वे ही भक्तप्रत्याख्यान के समय | में आर्यिकाओं और श्राविकाओं को भक्तप्रत्याख्यान के समय में भी उनके लिङ्ग होते हैं । आर्यिकाओं का एक-साड़ीमात्र- एकान्त स्थान में मुनिवत् नग्नतारूप उत्सर्गलिङ्ग प्रदान किये अल्पपरिग्रहात्मक लिङ्ग औत्सर्गिक लिङ्ग है और श्राविकाओं जाने का उल्लेख है। यह भ्रान्तधारणा पं. आशाधर जी की का बहुपरिग्रहात्मक लिङ्ग अपवादलिङ्ग है।
भ्रान्तिजनित व्याख्या से जनमी है। उन्होंने भगवती-आराधना इस अर्थ का समर्थन टीकाकार अपराजितसूरि के | पर 'मूलाराधनादर्पण' नामक टीका रची है। उसमें उपर्युक्त अधोलिखित वचनों से होता है - "स्त्रियोऽपि यल्लिङ्गं | गाथा की व्याख्या में उन्होंने लिखा है - दृष्टमागमेऽभिहितम् औत्सर्गिकं तपस्विनीनाम् 'इदरं वा' | "औत्सर्गिकं तपस्विनीनां साटकमात्रपरिग्रहेऽपि तत्र श्राविकाणां 'तं' तदेव तत्थ' भक्तप्रत्याख्याने भवति। लिङ्गं ममत्व-परित्यागादुपाचारतो नैर्ग्रन्थ्यव्यवहरणानुसरणात्। इतरम् तपस्विनीनां प्राक्तनम्। इतरासां पुंसामिव योज्यम्। यदि अपवादिकं श्राविकाणां तथाविधममत्वपरित्यागा महर्द्धिका, लज्जावती, मिथ्यादृष्टिस्वजना च तस्याः प्राक्तनं | भावादपचारतोऽपि नैर्ग्रन्थ्यव्यवहारानवतारात लिङ्गम्। विविक्ते त्वावसथे उत्सर्गलिंङ्गं वा सकल | भक्तप्रत्याख्याने सन्यासकाले इत्यर्थः। लिङ्गं तपस्विनीनामपरिग्रहत्यागरूपम्। उत्सर्गलिङ्गं कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत । | योग्यस्थाने प्राक्तनम्। इतरासां पुंसामिवेति योज्यम्। इदमत्र आह-तद् उत्सर्गलिङ्गं स्त्रीणां भवति 'परित्तं' अल्पं 'उवधिं' | तात्पर्यं-तपस्विनी मृत्युकाले योग्ये स्थाने वस्त्रमात्रमपि त्यजति। परिग्रहं करेंतीए'कुर्वत्याः।" (विजयोदया टीका / भगवती- | अन्या तु यदि योग्यं स्थानं लभते। यदि च महर्द्धिका सलज्जा आराधना गाथा ८०)।
मिथ्यात्वप्रचुरज्ञातिश्च न तदा पुंवद्वस्त्रमपि मुञ्चति। नो चेत् ____ अनुवाद-स्त्रियों के भी जो लिङ्ग आगम में बतलाये | प्राग्लिङ्गेनैव म्रियते। तथा चोक्तं - गये हैं, अर्थात् तपस्विनियों (आर्यिकाओं) का औत्सर्गिक | यदौत्सर्गिकमन्यद्वा लिङ्ग दृष्टं स्त्रियाः श्रुते। और श्राविकाओं का आपवादिक, वे ही भक्तप्रत्याख्यान में पुंवत्तदिष्यते मृत्युकाले स्वल्पीकृतोपधेः॥" भी होते हैं। तपस्विनियों का लिङ्ग तो पूर्वगृहीत अर्थात् | (मूलाराधना । आश्वास २ / गा. ८१/ पृ. २१०-२११) । औत्सर्गिक (एक-साडीरूप अल्पपरिग्रहात्मक) ही होता है, | अनुवाद-तपस्विनियों (आर्यिकाओं) के साड़ीमात्र का श्राविकाओं का लिङ्ग पुरुषों के समान समझना चाहिए। अर्थात् | परिग्रह होने पर भी उसमें ममत्व का परित्याग कर देने से श्राविका यदि अतिवैभवसम्पन्न है या लज्जाशील है अथवा | उनके उपचार से नैर्ग्रन्थ्य (सकलपरिग्रहत्याग) कहा गया उसके परिवारजन विधर्मी हैं, तो अविविक्त (सार्वजनिक) | है। अत: उनके लिङ्ग को औत्सर्गिक लिङ्ग कहते हैं। किन्तु स्थान में उसे पूर्वगृहीत लिङ्ग अर्थात् बहपरिग्रहात्मक श्राविकाएँ अपने वस्त्रादि में ममत्व का परित्याग नहीं करतीं, अपवादलिङ्ग ही दिया जाना चाहिए, किन्त विविक्त (एकान्त) | अतः उनके उपचार से भी नैर्ग्रन्थ्य नहीं कहा जा सकता। स्थान में सकलपरिग्रहत्यागरूप उत्सर्गलिङ्ग दिया जा सकता |
| इसलिए उनका लिङ्ग अपवादिक लिङ्ग होता है। ये लिङ्ग है। यहाँ प्रश्न उठता है कि स्त्रियों के लिए सकलपरिग्रहत्यागरूप
| उनके लिए भक्तप्रत्याख्यान काल अर्थात् संन्यासकाल उत्सर्गलिङ्ग कैसे निरूपित किया जा सकता है? उत्तर यह है | (सल्लेखनाकाल) में ग्रहण करने योग्य हैं। अभिप्राय यह है कि परिग्रह को अल्प करने से अर्थात् साडीमात्र-अल्पपरिग्रह | कि अयोग्य (अविविक्त = सार्वजनिक) स्थान में तपस्विनियों
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