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________________ यह है कि यदि कोई श्राविका भी महर्द्धिक या लज्जालु है | की आज्ञा दी गई है अथवा उसके स्वजन मिथ्यादृष्टि हैं, तो उसे भक्तप्रत्याख्यान के समय सार्वजनिक स्थान में पूर्वगृहीत बहुवस्त्रपरिधानरूप अपवादलिङ्ग ग्राह्य है, किन्तु एकांतस्थान में वह आर्यिकावत् एकसाड़ीमात्र परिधानरूप अल्पपरिग्रहात्मक उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण कर सकती है। यह अर्थ अपराजितसूरि ने ‘इतरासां पुंसामिव योज्यम्' इस वाक्य के अनन्तर निम्न शब्दों में स्पष्ट कर दिया है-"यदि महर्द्धिका लज्जावती मिथ्यादृष्टिस्वजनाश्च तस्याः प्राक्तनं लिङ्गम् । विविक्ते त्वावसथे उत्सर्गलिङ्गं वा सकलपरिग्रहत्यागरूपम् । उत्सर्गलिंङ्गं कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह- तदुत्सर्गलिङ्गं स्त्रीणां भवति अल्पं परिग्रहं कुर्वत्याः ।" इन वाक्यों में अपराजितसूरि ने स्पष्ट कर दिया कि श्राविका को एकांत स्थान में स्त्रियों के लिए निर्धारित अल्पपरिग्रहात्मक (एकसाड़ी-मात्र-परिधानरूप) उत्सर्गलिङ्ग ग्राह्य है । किन्तु पं. आशाधर जी ने 'इतरासां पुंसामिव योज्यम्' का अर्थ यह लगा लिया कि भक्तप्रत्याख्यानाभिलाषिणी महर्द्धिक, लज्जालु या मिथ्यादृष्टि स्वजनवाली श्राविका एकांत स्थान में इन्हीं गुणोंवाले श्रावक के समान वस्त्र भी त्याग देती । (देखिए, उनकी पूर्वोद्धृत टीका) । यह अर्थ भगवतीआराधना की उक्त गाथा और उसकी अपराजितसूरिकृत उपर्युक्त टीका के एकदम विपरीत है । ८. अमहर्द्धिकादि श्राविकाओं के लिए सर्वत्र उत्सर्गलिङ्ग अपराजितसूरि ने कहा है कि जो श्राविका महर्द्धिक, लज्जालु या मिथ्यादृष्टि परिवार की है, उसे सार्वजनिक स्थान में पूर्वगृहीत अपवादलिङ्ग ग्रहण करने की अनुमति है, किन्तु एकांत स्थान में उसे उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण करना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि जो श्राविका महर्द्धिक, लज्जालु या मिथ्यादृष्टि - परिवार की नहीं है, उसके लिए सार्वजनिक स्थान में भी उत्सर्गलिङ्ग ग्रहण करने का आदेश है । अब यदि इस उत्सर्गलिङ्ग को मुनिवत् नाग्न्यरूप - उत्सर्गलिङ्ग माना जाए, तो स्त्री के सार्वजनिक स्थान में नग्न होने का प्रसंग आयेगा, जो स्त्री के शीलरक्षणार्थ आवश्यक लज्जारूप धर्म के और लोकमर्यादा के विरुद्ध है, जिनके पालन की आज्ञा आगम में दी गई है - "गयरोसवेरमायासलज्जामज्जादकिरियाओ ।" (मूलाचार / गा. १८८ ) । आगम में स्त्री को सार्वजनिक स्थान में अपने अंगों को सदा आवृत रखने का आदेश है। आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य अमितगति ने कहा है कि स्त्री का गात्र स्वयं संवृत (ढँका हुआ) नहीं होता, इसलिए उसे वस्त्र से आवृत करने 24 / जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित Jain Education International 'णहि संउडं च गत्तं तम्हा तासिं च संवरणं ॥ ' (प्र.सा./ तात्पर्यवृत्तिगत गाथा ३/१० ) । 'न...... गात्रं च संवृतं तासां संवृतिर्विहिता ततः ॥ ' ( योगसारप्राभृत ८/४७) । तात्पर्य यह है कि शीलरक्षणार्थ स्त्रीशरीर के कुछ अंग पुरुषों को दृष्टिगोचर नहीं होने चाहिए, किन्तु वे यथाजात अवस्था में दृष्टिगोचर होते हैं, अतः उन्हें वस्त्र से आच्छादित कर अदृष्टिगोचर बनाना आवश्यक है। श्राविका के सार्वजनिक स्थान में नग्न हो जाने पर इस आगमवचन का पालन नहीं हो सकता, अत: अमहर्द्धिक, अलज्जालु (जिसे केवल एकसाड़ी धारण करने में लज्जा का अनुभव नहीं होता) अथवा सम्यग्दृष्टि - परिवार की श्राविका को सार्वजनिक स्थान में जिस उत्सर्गलिङ्ग के ग्रहण का उपदेश है, वह मुनिवत् नग्नतारूप उत्सर्गलिङ्ग नहीं हो सकता, आर्यिकावत् एकवस्त्ररूप उत्सर्गलिङ्ग ही हो सकता है। इससे सिद्ध है कि अपराजितसूरि ने श्राविकाओं के लिए एकांत स्थान में भी आर्यिकावत् एकवस्त्ररूप उत्सर्गलिङ्ग ही ग्राह्य बतलाया है। इस तथ्य से भी सिद्ध है कि पं. आशाधर जी की व्याख्या भगवतीआराधना की उक्त गाथा के अभिप्राय के विरुद्ध है । ९. युक्तित: भी आगम विरुद्ध उपर्युक्त शब्दप्रमाणों से सिद्ध है कि भगवती आराधना में भक्तप्रत्याख्यान के समय स्त्रियों के लिए एकांत या सार्वजनिक, किसी भी स्थान में मुनिवत् नाग्न्यलिङ्ग ग्रहण करने का उल्लेख नहीं है। उक्त शब्दप्रमाणों से वह आगम विरुद्ध सिद्ध होता है । युक्तितः भी वह आगम विरुद्ध ठहरता है, क्योंकि भक्तप्रत्याख्यान के समय आर्यिका या श्राविका के वस्त्रत्याग से किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती। उससे न तो उनके गुणस्थान की वृद्धि होती है, न संवरनिर्जरा की । वह स्त्रियों को मोक्षमार्ग में किसी भी तरह आगे नहीं बढ़ाता । स्त्रीपर्याय में जीव का उत्थान पाँचवें गुणस्थान तक ही हो सकता है और वह साड़ीमात्र परिग्रह - रूप उत्सर्गलिङ्ग से ही संभव है, उसके अभाव में नहीं। इसके अतिरिक्त संस्तरारूढ़ स्त्री की नग्न अवस्था में मृत्यु होने पर यदि उसके शव को उसी अवस्था में दाहसंस्कार के लिए ले जाया जाता है, तो इससे लज्जास्पद और बीभत्स दृश्य उपस्थित होगा और यदि साड़ी में लपेटकर ले जाया जाता है, तो यह सिद्ध होगा कि वस्त्रत्याग निरर्थक है। १०.पं. सदासुखदास जी को अस्वीकार्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524304
Book TitleJinabhashita 2006 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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