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________________ संस्कारोन्नयन में विद्वानों का योगदान डॉ. श्रेयांसकुमार जैन मानव जीवन में संस्कारों का सर्वाधिक महत्त्व है, उसका नैतिक एवं चारित्रिक विकास के लिए गृहस्थाचार्य विद्वान् शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक परिष्कार के लिए की जाने | समाज में होना ही चाहिए, क्योंकि गृहस्थाचार्य विद्वानों के वाली क्रियाओं को संस्कार संज्ञा दी गई है। संस्कारों से | बिना सामाजिक, धार्मिक क्रियाएँ यथाविधि न की जाने से मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण और विकास होता है। सफलीभूत श्रेयस्कारिणी नहीं हो सकतीं। इतिहास के पृष्ठों जैनाचार्यों ने संस्कार पर विचार करते हुए लिखा है- 'वस्तु पर लिखा है कि ३२५ ई. सन् वर्ष पूर्व कुशल राजनीतिज्ञ स्वभावोऽयं यत् संस्कारः स्मृतिबीजमादाधीत' वस्तु का | बहुश्रुत मनीषी चाणक्य की सूझबूझ और सहायता से चन्द्रगुप्त स्वभाव ही संस्कार है, जिसको स्मृति का बीज माना गया | मौर्य ने महाशक्ति नंदवंश के राजा को पराजित कर साम्राज्य है। (सि.वि.) शरीरादि की शुचि स्थिर और आत्मीय मानने | हस्तगत किया था। सोमदेव ने भी उल्लेख किया है। यह रूप जो अविद्या/ अज्ञान है, उसके पुनः प्रवृत्ति रूप अभ्यास उदाहरण भौतिक उन्नति का है, इसी प्रकार विद्वान्/ज्ञानी से संस्कार उत्पन्न होते हैं। मनुष्य के जीवन की संपूर्ण शुभ | भद्रबाहु श्रुतकेवली के द्वारा दी गई धार्मिक शिक्षा-दीक्षा से और अशुभ वृत्ति उसके संस्कारों के अधीन है, जिनमें कुछ | शिक्षित दीक्षित हुए सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने विशाल साम्राज्य पूर्वभव से साथ लाता है और कुछ इसी भव में प्राप्त करता। लक्ष्मी को तृणवत् तुच्छ समझकर उसे त्यागकर जैनधर्म का है। आचार्य श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती लिखते हैं-'नरकादि | उच्च महनीय चारित्र धारण किया था। भवों में जहाँ उपदेश का अभाव है, वहाँ पूर्वभव में धारण ___विद्वानों द्वारा भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति कराने किए हुए तत्त्वार्थज्ञान के संस्कार के बल से सम्यग्दर्शन की | वाले उक्त ऐतिहासिक उदाहरण को जानने के बाद समाज प्राप्ति होती है '२ इन अनन्तानुबंधी कषायों के द्वारा जीव में | और संस्कृति के उत्थान में विद्वानों द्वारा किए गए योगदान उत्पन्न हुए संस्कार का अनंत भवों में अवस्थान माना गया | को पुस्तकों द्वारा और वृद्धजनों द्वारा भी जाना जा सकता है। है। अविद्या के अभ्यास रूप संस्कारों के द्वारा मन स्वाधीन | जहाँ पंडित श्री भूरामल जी (आचार्य ज्ञानसागर महाराज) न रहकर विक्षिप्त हो जाता है। वही मन विज्ञान रूप संस्कारों जैसे संत की उपलब्धि हई, जिनकी साधना और साधक के द्वारा स्वयं ही आत्मस्वरूप में स्थिर हो जाता है। शुद्ध | परम्परा ने अपूर्व धर्म प्रभावना की है और कर रही है। वहाँ चैतन्य स्वरूप को जानता हुआ भी पूर्व भ्रांति के संस्कारवश | विद्वत्वर्य पं.श्री फूलचन्द्रजी सिद्धान्ताचार्य, पं. प्रवर श्री कैलाश पुनरपि भ्रान्ति को प्राप्त होता है। आचार्य शिवार्य पठित | चन्द्रजैनशास्त्री, पं.श्रीरतनचन्द्रजीमुख्तार, पं. श्री जगन्मोहनलाल ज्ञान के संस्कार आत्मा में निरंतरता को प्राप्त रहते हैं, इसी | जी, पं. श्री मक्खनलाल शास्त्री, पं. श्री हीरालाल जैन, डॉ. बात को बतलाते हुए कहते हैं हीरालाल जैन, डॉ. लालबहादुर शास्त्री आदि विद्वानों ने विणएण सुदमधीदंजदिवि पमादेण होदि विस्सरिदं। | जिनागम के भंडार की भी वृद्धि के साथ सैकड़ों विद्वान् तमुवढादि परभवे केवलणाणंच आवहदि ॥२८६॥ । | तैयार कर समाज को सौंपे, जिनके द्वारा सम्यक् रूप से विनय से पढ़ा हुआ शास्त्र किसी समय प्रमाद से विस्मृत संस्कारों का बोध कराया जा रहा है और कराया जाएगा। हो जाए तो भी वह अन्य जन्म में स्मरण हो जाता है. संस्कार अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रिपरिषद् और अखिल रहता है और क्रम से केवलज्ञान को प्राप्त कराता है। भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद दोनों संस्थाओं के विद्वानों संस्कार विषयक इन शास्त्रीय बातों को समाज द्वारा सतत समाज की सेवा की गई है और संस्कारों का से ही विद्वानों ने प्रसारित और प्रचारित किया है। वर्तमान में | प्रसार-प्रचार किया गया है। पुराणों/शास्त्रों में प्रतिपादित संस्कार भी उन्हीं द्वारा किया जा रहा है और किया जाएगा। ग्रहण | विद्वान् ही समझा सकते हैं। जैसे-भगवजिनसेनाचार्य ने चारित्र किए हुए संस्कार प्रभाववान होते ही हैं, क्योंकि शब्द ग्रहण | धर्म का क्रमिक व मौलिक निरूपण करने के लिए गर्भान्वय, के काल में ही संस्कार युक्त किसी पुरुष के उसके (शब्द दीक्षान्वय, कर्जन्वय क्रियाओं-संस्कारों का ललित विवेचन के वाच्यभूत पदार्थ के) रसादि विषयक प्रत्यय की उत्पत्ति | किया है । गर्भान्वय की गर्भाधान, प्रीतिसुप्रीति, धृति, मोद, पाई जाती है। प्रियोद्भव, नामकर्म बहिर्यान, निषद्या, प्राशन, व्युष्टि केशवाय, 18 / जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524304
Book TitleJinabhashita 2006 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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