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________________ लिपिसंख्यान, संग्रह उपनीति, व्रतचर्या, व्रतावरण, विवाह, | करने का उपक्रम विद्वानों द्वारा सतत किया जाता है। जिससे आबाल वृद्ध सत्संस्कार को प्राप्तकर आत्मकल्याण के साथ परकल्याण रूप प्रवृत्ति का बोध प्राप्त करते । इसके अलावा जो अन्य माध्यमों से समाज को संस्कार देते हैं, उनको भी यत्किञ्चित प्रस्तुत किया जा रहा है। आधान आदि क्रियाओं से स्पष्ट है कि कन्याओं की स्थिति पुत्रों के समान ही थी । मनुस्मृति आदि ग्रंथों में षोडश संस्कारों में पुंसवन संस्कार को महत्ता दी गई है, जिससे ज्ञात होता है कि कन्या की स्थिति स्मृतियों में ही थी क्योंकि पुंसवन संस्कार पुत्र प्राप्ति के लिए ही किया जाता है। माता-पिता की कामना होती है कि गर्भस्थ संतान पुत्र हो । विद्वानों के द्वारा समाज को समझाया जाता है कि अप्रिय निन्द्य वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि खोटे वचनों से हिंसा की प्रेरणा होती है और अनेक प्रकार के दोषों की भी उत्पत्ति है, जैसा कि आचार्य अमृतचन्द्रस्वामी ने भी कहा है वर्णलाभ, कुलचर्या, गृहीशिता, प्रशान्ति गृहत्याग, दीक्षान्वय, जिनरूपता, मौनाध्ययनव्रतत्व, तीर्थकृतभावना, गुरुस्थानाभ्युप - गमन, गणोपग्रहण, स्वगुरुस्थान संक्रान्ति, निःसंगत्वात्म भावना, योग से निर्वाण प्राप्ति, योगनिर्वाणसाधन, इन्द्रोपपाद अभिषेक, विधिदान, सुखोदय, इन्द्रत्याग अवतार, हिरण्योत्कृष्ट जन्मता, मन्दरेन्द्राभिषेक, गुरुपूजोपलम्भन, यौवराज्य स्वराज, चक्रलाभ, दिग्विजय, चक्राभिषेक, साम्राज्य, निष्क्रान्ति, योगसंग्रह, आर्हन्त्य, तद्विहार, योगत्याग, अग्रनिवृत्ति । पुराणसाहित्य में वर्णित इन क्रियाओं की विधि विद्वान् ही समझा सकते हैं । पूर्वकाल में चक्रवर्ती सम्राट आदि विद्वानों, ऋषियों, मुनियों से इन क्रियाओं को समझकर करते रहे हैं। दीक्षान्वय सम्बन्धी ४८ क्रियाएँ विशेष लाभ पहुँचाने वाली हैं । अवतार, वृत्तलाभ, स्थानलाभ, गणग्रह, पूजाराध्य, पुण्य यज्ञ, दृढ़चर्चा, उपयोगिता, इन आठ क्रियाओं के साथ उपनीति नाम गर्भान्वय की चौदहवीं क्रिया से लेकर अग्रनिवृत्ति नाम की तिरेपनवीं क्रिया तक की चालीस क्रियाओं को मिलाकर 48 दीक्षान्वय क्रियाएँ होती हैं। कर्त्रन्वय की सात क्रियाएँ पुण्य करने वाले लोगों को प्राप्त होती हैं । १. सज्जातित्व २. सदगृहित्व ३. पारिव्राज्य ४. सुरेन्द्रता ५. साम्राज्य ६. परमार्हन्त्य ७. परमनिर्वाण, ये सप्त स्थान तीनों लोकों में श्रेष्ठ हैं। इन क्रियाओं- पूर्वक विद्वान् संस्कारों का प्रसार करने में योगदान देते हैं। संस्कारों को यथाविधि सुसम्पन्न करने के लिए गार्हपत्य, आह्वनीय, दाक्षिणत्याग्नि रूप महाग्नियों की स्थापना करके संस्कारोपयोगी आधान, प्रीति, सुप्रीति, धृति मंत्रों का उच्चारण करके दशांगी धूप आदि सुगंधित द्रव्यों से हवन कराकर विद्वान् पवित्रता/निर्मलता वातावरण बनाते हैं। आर्हत् दर्शन प्रतिकूल प्राणी पीड़ाकारक उच्चाटन, वशीकरण एवं मारण प्रदति मंत्रों का खण्डन करते हैं। तीर्थंकर, गणधर, सामान्यकेवली की दिव्यमूर्तियों का सुसंस्कार सम्पन्न करने वाली महाग्नियों के माध्यम से गृहस्थाचार्य प्रत्येक मांगलिक कार्य को सम्पन्न कराते हैं। देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन षट्कर्तव्यों का बोध कराते हैं । कृषि, व्यापार आदि न्यायपूर्वक जीविका चलाने का मार्ग बतलाते हैं। गृहस्थ को सदाचरण का पालन करते हुए संसार के प्रत्येक प्राणी के साथ मैत्रीभाव, दीन-दु:खियों के प्रति करुणाभाव, गुणियों के प्रति प्रमोदभाव रखने की शिक्षारूप संस्कार समय-समय पर विद्वानों द्वारा दिए जाते हैं । पर्व के दिनों में उपदेशों और पूजा विधान आदि कराकर संस्कारित Jain Education International छेदनभेदनमारण कर्षणवाणिज्यचौर्यवचनादि । तत्सावद्यं यस्मात् प्राणिवधाद्याः प्रवर्तन्ते ॥ ९७ ॥ अरतिकरं मीतिकरं खेदकरं वैरशोककलहकरम् । यदपरमपि परस्य तत्सर्वमप्रियं श्रेयम् ॥ ९८ ॥ पुरुषार्थसिद्धयुपाय जो वचन - कथन - बोलचाल छेद डालने वाला, मार देने वाला, कर्षण कराने वाला, चोरी कराने वाला, हिंसक व्यापार में लगाने वाला हो, यथा इसे छेद डालो, भेद डालो, घायल कर दो, इसके टुकड़े कर दो, मार डालो, बांध दो रूप हों, हिंसक व्यापार, चोरी आदि के लिए प्रेरक वचन हों, वे पापमय, कषायम हैं । इनसे हिंसक कार्यों के लिए प्रेरणा मिलती है। जीवों की हिंसा होती है, अतः त्याज्य हैं । जो वचन दूसरों को अरुचिकर हो या अप्रीतिकर हों, जिनवचनों से भय शंका या संदेह उत्पन्न हो, विकल्प उत्पन्न हो, अथवा कलह लड़ाई झगड़ा हो, जिनसे हृदय संतप्त हो, उन सब वचनों को अप्रिय वचन कहते हैं, जो सर्वथा त्याज्य हैं । संस्कारहीन वचनों के व्यवहार से निवृत्ति का मार्ग ग्रंथों के बिना मिलना असंभव है और ग्रंथों के वर्ण्य विषय को समाज में फैलाना विद्वानों के बिना असंभव है, क्योंकि शास्त्रीय विषय सर्वजन ग्राह्य नहीं हैं, उन्हें समझने के लिए अध्यवसाय की जरूरत होती है, वह अध्यवसाय विद्वान् करते हैं । शास्त्रों का प्रथमतः स्वयं अध्ययन करते हैं और शास्त्रों से विषय वस्तु ग्रहण कर समाज को समझाते हैं। जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित / 19 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524304
Book TitleJinabhashita 2006 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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