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________________ कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकी। इसके विपरीत राम, | धर्म का आराधन किया हो, अर्हन्त और गुरु की सेवा की पांडव, श्रीकृष्ण ने इन मिथ्या विद्या देवताओं की कोई | हो, तो तू प्रकट हो। फिर स्थिर मन से जिनेन्द्र का ध्यान आराधना नहीं की तो भी उनके निर्मल सम्यक्त्व और पूर्वकृत करने लगा।" पण्य से उनके सर्वकार्य निर्विघ्न सम्पन्न हो गये। | इसमें शासनदेवता की कोई आराधना नहीं बताई है। प्रश्न- तब फिर शुभचन्द्रकृत पांडवपुराण के पर्व २० में | आराधना तो धर्म की और सेवा अर्हन्त, गुरु की तथा ध्यान अर्जन द्वारा शासनदेवता की आराधना और उससे सहायता | जिनेन्द्र का बताया है। अर्जन ने शासनदेवता से सहायता की की प्रार्थना का वर्णन कैसे किया गया है ? देखो - भी याचना नहीं की है। आगे के श्लोक ८५-८६ में बताया है स्थितस्तत्र च धैर्येण दध्यौ शासनदेवतां। कि शासनदेवता ने प्रकट होकर अर्जन से कहा कि मैं तम्हारी आराधितो मया धर्मो जिनदेवः सुसेवितः॥८२॥ किंकर हूँ, मेरे लिए जो आदेश हो वह बताओ। इससे गुरुश्च यदि प्राकट्यं भज शासनदेवते। शासनदेवता अर्जुन की सेवक सिद्ध होती है, अर्जुन उसका इति ध्यायन् जिनं चित्ते स्थितोऽसौ स्थिर मानसः॥८३॥ | सेवक नहीं। उत्तर - इन श्लोकों का पूरा अर्थ इस प्रकार है - क्रमशः "अर्जुन वहाँ (चबूतरे पर) धैर्यपूर्वक बैठ गया और महावीर जयंती स्मारिका १९७५ शासनदेवता को इस प्रकार सम्बोधन किया कि अगर मैंने | प्रकाशक-राजस्थान जैन सभा, जयपुर से साभार कुसंग से दूर रहना १. योग्य पुरुष कुसंग से डरते हैं, पर क्षुद्र प्रकृति के आदमी दुर्जनों से इस रीति से मिलते-जुलते हैं, मानों वे उनके कुटुम्ब के ही हों। २. पानी का गुण बदल जाता है, वह जैसी धरती पर बहता है, वैसा ही गुण उसका हो जाता है। उसी प्रकार मनुष्य की जैसी संगति होती है, उसमें वैसे ही गुण आ जाते हैं। ३. आदमी की बुद्धि का सम्बन्ध तो उसके मस्तक से है, पर उसकी प्रतिष्ठा तो उन लोगों पर पूर्ण अवलम्बित है, जिनकी संगति में वह रहता है। ४. मालूम तो ऐसा होता है कि मनुष्य का स्वभाव उसके मन में रहता है, किन्तु वास्तव में उसका निवास स्थान उस गोष्ठी में है, जिनकी कि वह संगति करता है।। ५. मन की पवित्रता और कर्मों की पवित्रता आदमी की संगति की पवित्रता पर निर्भर है। ६. पवित्रहृदयवाले पुरुष की संगति उत्तम होगी और जिसकी संगति अच्छी है, वे हर प्रकार से फूलते-फलते हैं। ७. अन्तःकरण की शुद्धता ही मनुष्य के लिये बड़ी सम्पत्ति है और संत-संगति उसे हर प्रकार का गौरव प्रदान करती ८. बुद्धिमान् यद्यपि स्वयमेव सर्वगुण सम्पन्न होते हैं, फिर भी वे पवित्र पुरुषों के सुसंग को शक्ति का स्तम्भ समझते ९. धर्म मनुष्य को स्वर्ग ले जाता है और सत्पुरुषों की संगति उसको धर्माचरण में रत करती है। १०. अच्छी संगति से बढ़कर आदमी का सहायक और कोई नहीं है। और कोई वस्तु इतनी हानि नहीं पहुँचाती, जितनी कि दुर्जन की संगति। ११. यदि हमारे घर में क्लेश व कलह निर्मूल हो जाएँ, तो समझना चाहिये कि हमें सही गुरु मिलें हैं। १२. किसी को सुधारने की बजाय अच्छी भावना करें। संकलन सुशीला पाटनी मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित /17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524304
Book TitleJinabhashita 2006 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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