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________________ अपने युग के अप्रतिम रचनाकार सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री | जबलपुर एवं इंदौर विश्वविद्यालयों में भी यह एम.ए. में नेमिचन्द्राचार्य द्वारा प्राकृत में गुणानुवाद रूप 'गोम्मटेस-थुदि' | निर्धारित है। सृजित हुई थी। विश्वास है विश्ववंद्य भगवान् गोम्मटेश्वर बाहुबली और यह 'गोम्मटेस-थुदि' (गोम्मटेश स्तुतिः) प्राकृत-जैन | उनकी मूर्ति के वैशिष्ट्य को रेखांकित करने वाले आचार्य शौरसेनी भाषा में निबद्ध एक महत्त्वपूर्ण स्तुति काव्य है।। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती की यह 'गोम्मटेस थुदि' (गोम्मटेश इस स्तुति के रचयिता दशवीं शताब्दी ईस्वी के उद्भट | स्तुति) कोटि-कोटि कण्ठों से मुखरित होकर सहस्राब्द विद्वान् आगमशास्त्र के अद्वितीय पण्डित, प्रख्यात जैनाचार्य | प्रतिष्ठापना के अनन्तर होने वाले द्वितीय महामस्तकाभिषेक नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं, जिन्होंने अपने बुद्धिरूपी चक्र | के पवित्र एवं ऐतिहासिक संदर्भ में संपूर्ण विश्व को भगवान् से षट्खण्ड आगमसिद्धान्त को सम्यक् रीति से अधीन किया गोम्मटेश्वर के चरणों में प्रणमित होने का अवसर प्रदान था। उन्होंने दर्शनशास्त्र के अनेक ग्रंथों की रचना की, जिनमें | करेगी। गोम्मटसार, त्रिलोकसार, लब्धिसार तथा क्षपणासार आदि भगवान बाहबली के महामस्तकाभिषेक महोत्सव के प्रमुख हैं। पावन अवसर पर सम्पूर्ण विश्व, सम्पूर्ण मानवता और सभी ___ आचार्य नेमिचन्द्र दक्षिण भारत के निवासी और गोम्मटेश | प्राणियों की सुख-शांति समृद्धि के लिए अपनी मंगल भावनाएँ प्रभु के परम भक्त थे। अत: उनके द्वारा रचित इस स्तुति में | इस सुप्रसिद्ध पद्य के माध्यम से समर्पित करता हूँ:उनका भक्तिभाव रसप्लावित हो उठा है। हृदयगत भावों को| क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः, शब्दों के माध्यम से मूर्तरूप देने की उनमें अद्भुत क्षमता | काले काले च सम्यग् वर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्। थी। वे कोरे भक्त नहीं, प्रत्युत उत्कष्ट कोटि के कवि भी थे। दुर्भिक्षं चौरमारी, क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके, । प्राकृत-भाषा की मधुरता तथा शब्दौचित्य के ज्ञान से | जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रभवतु सततं सर्व-सौख्य-प्रदायी'। स्तुति को अनुपम बना दिया है। अर्थ गाम्भीर्य ने इसमें प्राण संदर्भ फूंके हैं। प्रत्येक सहृदय इसे पढ़ने के लिए विवश हो उठता १. ऐलाचार्य श्री १०८ विद्यानन्दजी मुनि : अन्तर्द्वन्द्वों के पार: है। इस स्तुति के अनुशीलन से स्पष्ट होता है कि आचार्य गोम्मटेश्वर बाहुबली, आशीर्वचन पृष्ठ३ । २. डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ज्योतिषाचार्य: तीर्थंकर महावीर और नेमिचन्द्र जी ने श्री गोम्मटेश्वर बाहबली के पादमल/पादपद्मों ___ उनकी आचार्य परम्परा, खण्ड- २, पृष्ठ ४२१ में बैठकर इसकी रचना की होगी। मूर्ति का प्रत्यक्षतः सूक्ष्म ३. पण्डित लक्ष्मीधर; षट्भाषाचन्द्रिका, पृष्ठ२६- शूरसेन जनपद अवलोकनकर्ता ही इतना भव्य और विशद् विश्लेषण कर (ब्रजमण्डल, मथुरा के आसपास के प्रदेश) में जो भाषा सकता है। बोली जाती थी, उसी का नाम 'शौरसेनी प्राकृत' है। संस्कृत के 'उपजाति' छंद में निबद्ध प्राकृत भाषा की ४. आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती- गोम्मटसार कर्मकाण्ड, रचना कितनी भव्य हो सकती है, यह स्तुति उसका जीवंत जह चक्केण य चक्की छक्खंडं साहियं अविग्घेण। प्रमाण है। आकार में लघु होने पर भी यह स्तुति एक उत्कृष्ट तह मइ- चक्केण मया छक्खंडं साहियं सम्मं ॥ गाथा ३९७ साहित्यिक कृति है। ५. आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के व्यक्तित्व एवं कृतित्व इस गोम्मटेश स्तुति को सर्वजन सुलभ और बोधगम्य के विशेष परिचय के लिए देखेंबनाने की दृष्टि से परमपूज्य आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी (अ) डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ज्योतिषाचार्य; तीर्थंकर महावीर मुनि महाराज द्वारा हिन्दी पद्यानुवाद तथा परमपूज्य ऐलाचार्य और उनकी आचार्य परम्परा, खण्ड २ पृष्ठ-४१७-३३ (ब) डॉ. जगदीश चन्द्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, १०८ मुनि विद्यानन्दजी (अब आचार्य) द्वारा हिन्दी अर्थ से समलंकृत किया गया है। प्राकृत पदों की संस्कृत छाया मेरे पृष्ठ ३१२-३१५ ६. आचार्य पूज्यपाद; शान्ति भक्ति, पद्य-७ द्वारा की गई है तथा सम्पादन में विचार विमर्श पूर्वक पाठान्तर तथा आवश्यक विवरण पाद टिप्पणी में अंकित किए हैं। निदेशक अत: ऐसी प्रशस्त कृति को डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, संस्कृत, प्राकृत तथा जैन विद्या अनुसंधान केन्द्र सागर (म.प्र.) ने सन् १९८३ से अपनी बी.ए. संस्कृत तथा २८, सरस्वती नगर, दमोह, म.प्र. एम.ए. संस्कृत सम्बन्धी 'प्राकृत तथा जैन विद्या' वर्ग के पाठ्यक्रम हेतु पाठ्यग्रंथ के रूप में स्वीकार लिया है तथा । 12 / जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524304
Book TitleJinabhashita 2006 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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