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________________ ३ गतांक से आगे शासनदेव पूजा-रहस्य श्री रतनलाल जी कटारिया यही बात निम्नांकित ग्रंथों के विसर्जन श्लोक और मंत्रों | सर्वज्ञस्य स्नपने, गंध= गंधादियज्ञभागं, प्रतीच्छत्तरांमें स्पष्ट लिखी है अतिशयेन स्वीकुरुताम्) २. पात्रं द्राक् प्रतिगृह्यतामिह महे पुष्पादिकाभ्यर्चनम् ॥२२॥ मंगलार्थं समाह ता विसा खिलदेवताः। (टीका-पुष्पादिकमेवाभ्यर्चनं पूजाद्रव्यं तदेव स्वकं पात्रं, विसर्जनाख्यमंत्रेण वितीर्य कुसुमांजलिं ॥१२४॥ द्राक-शीघ्रं, इहमहेअस्मिन्नभिषेके. प्रतिगृह्यतां स्वीक्रियॐ जिनपूजार्थं समाहूता देवता विसर्जनाख्य मंत्रेण ताम्।) १० सर्वेविहितमहामहाः स्वस्थानं गच्छत यः यः यः। इनमें भी अर्हत्पूजन के लिए ही गंधादि पूजाद्रव्य और इति विसर्जन मंत्रम्। प्रतिष्ठासारसंग्रह : वसुनंदि पूजापात्र दिग्पालों को ग्रहण करने के लिए लिखा है। इस तरह ‘शासनदेवपूजा' शब्द का अर्थ शासनदेवों की प्रागाहू ता देवता यज्ञभावै पूजा सिद्ध नहीं होता है, किन्तु शासनदेवों द्वारा जिनपूजा प्रीता भर्तुः पादयोरर्घदानैः । सिद्ध होता है यही अर्थ सब जगह ग्रहण करना चाहिए। क्रीतां शेषां मस्तकै रुद्वहं त्यः, अर्थात् 'शासनदेवपूजा' शब्द में षष्ठीतत्पुरुषसमास न होकर प्रत्यागन्तुं यान्त्वशेषा यथास्वं ॥६५॥ तृतीयातत्पुरुषसमास लेना ही सुसंगत होगा। नित्य महोद्योत : पं. आशाधर प्रश्न- गुणभद्रकृत अभिषेकपाठ के श्लोक ४९ के मंत्र भाग में लिखा है .... ॐ इन्द्र! आगच्छ इदं अर्घ्य यज्ञभागं च ॐ जिन पूजार्थमाहूता देवा: सर्वे विहित महामहाः योजामहे प्रतिगृह्यतां'। स्वस्थानं गच्छत गच्छत जः जः इति विसर्जन मन्त्रोच्चारणेन इसमें पूजार्थक यज् धातु के प्रयोग से इन्द्र नाम के दिग्पाल यागमण्डले पुष्पांजलिं वितीर्य देवान् विसर्जयेत्॥ की पूजा सिद्ध होती है (अभिषेकपाठ संग्रह पृष्ठ २३) ऐसा (जिनयज्ञकल्प अध्याय 5: आशाधर) ही अभयनंदिकृत लघुस्नपन के श्लोक १५ के मंत्रभाग में लिखा है (अभिषेकपाठसंग्रह पृष्ठ ६७) इन सबका क्या देव देवार्चनार्थं ये समाहूताश्चतुर्विधाः। समाधान है? ते विधायाहतां पूजां यांतु सर्वे यथायथं ॥ उत्तर- 'यजे देवपूजासंगतिकरणदानेषु' अर्थात् यज् धातु इन्द्रनंदिसंहिता के तीन अर्थ होते हैं १. देवपूजा २. संगति करना,सन्निकट होना ३. देना। यहाँ यजामहे का अर्थ ददामहे देता हूँ है। दधे मूघ्नार्हितः शेषाहू ता सर्वदेवता। देखो अभिषेकपाठसंग्रह पृष्ठ ६७) भावशर्मकृत टीका। यहाँ मया क्रमाद् विसृज्यन्ते निर्गच्छामि जिनालयात्॥ 'यजामहे' का ददामहे के सिवा और कोई दूसरा अर्थ संभव (इन्द्रनंदि संहिता पूजासार पत्र ६२) ही नहीं है। पूजा अर्थ तो तब होता जब अर्घ्य और यज्ञभाग इनमें बताया है कि- 'जिनपूजा के लिए जिनका आह्वान शब्द द्वितीयाविभक्ति के बजाय तृतीयाविभक्ति में होते, किन्तु किया गया है और जिन्होंने पूजाद्रव्य प्राप्त कर उससे जिन ऐसा है नहीं। इसी से टीकाकार भावशर्म ने यजामहे का अर्थ पूजा कर ली है,वे सब देवगण अपने-अपने स्थान को जावें।' स्पष्टतया ददामहे ही दिया है। पूरे मंत्र भाग का सही अर्थ इस ये सब श्लोक और मंत्र 'आहूता ये पुरा देवा'। इस प्रकार है - हे इन्द्र आओ और यह अर्घ्य, यज्ञभाग तुम्हें देता श्लोक में हूबहू रूपांतर है तथा इनसे 'ते जिनाभ्यर्चनं कृत्वा' हूँ, इसे स्वीकार करो। इस शुद्ध पाठ की भी ठीक पुष्टि हो जाती है। यहाँ गृह्यतां' (ग्रहण करो) शब्द से ही काम चल सकता अभयनंदिकृत लघुस्नपन (भावशर्मकृत टीका) में लिखा था, फिर भी जो प्रति' उपसर्ग लगाया है वह जिनेन्द्र के प्रति ग्रहण करो इस भाव के द्योतन के लिए लगाया है। अर्थात् १. गंधं बंधुरधी: प्रतीच्छतुतरामत्रार्हतः पूजने ॥२१॥ यह पूजाद्रव्य दिग्पाल की पूजा के लिए प्रदान नहीं किया (टीका-बंधुरधीः = धनपतिः, अत्रार्हतः पूजने क्रियमाणे | जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित / 13 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524304
Book TitleJinabhashita 2006 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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