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________________ आदि प्रति सर्वदा जागरुक रहते थे। अधिकारों की रक्षा करने । मूर्तियाँ न केवल जैनदृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं; प्रत्युत भारत की का साहस और सामर्थ्य भी उनमें था, किन्तु कर्तव्यों के प्रति | प्राचीन सभ्यता, संस्कृति, कला, पुरातत्त्व और इतिहास की पर्णरूपेण समर्पित थे। दिग्विजय कर भरत 'सार्वभौम सम्राट' | ये सब बहुमूल्य धरोहर हैं। का विरुद प्राप्त करना चाहते थे। बाहुबली का स्वतंत्र अस्तित्त्व | श्रवण श्रमण-जैन मुनि, वेल-श्वेत उज्ज्वल (कन्नड़ भाषा इसमें बाधक था। बाहुबली के मन में अग्रज के प्रति अवज्ञा | में), गोल-सरोवर, अतः इस पूरे पद का अर्थ है- 'जैन का भाव नहीं था, किन्तु पिता से प्राप्त राज्य का उपभोग और | साधुओं का धवल सरोवर'। यहाँ के विंध्यगिरी पर गोम्मटेश्वर उसकी सुरक्षा उनका स्वत्व था-उसकी रक्षा करना ही उनका | की दिगम्बर निर्विकार,कायोत्सर्गासन, उत्तराभिमुखी, ध्यानस्थ, कर्तव्य बन गया था। दोनों पक्षों के औचित्य-अनौचित्य की सौम्य प्रतिमा अवस्थित है। इसके भव्य दर्शन श्रवणबेलगोल परीक्षा अहिंसक युद्ध के माध्यम से हुई। इसी घटना से | से १५ मील पूर्व से ही प्रारम्भ हो जाते हैं। विंध्यगिरी का उत्पन्न हुई विरक्ति ने बाहुबली को उग्र तपस्वी, श्रमण-साधु | स्थानीय नाम 'दोडवेट्टा' (बड़ी पहाड़ी) है। यह समुद्र तल बना दिया। | से ३३४७ फुट ऊपर है और निम्नवर्ती मैदानी भाग से ४७० ___ इन्हीं बाहुबली का आख्यान इतिहास के अंतराल और | फुट ऊँची है। इस मूर्ति का प्रधान भास्कर (निर्माता) थादिशाओं की दूरी को अतिक्रान्त करता हुआ दक्षिण भारत के | अरिष्टनेमि और प्रतिष्ठाचार्य थे सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य कर्नाटक राज्य के श्रवणबेलगोल सुरम्य पर्वत शिखर | नेमिचन्द्र जी। विंध्यगिरी-इन्द्रगिरी पर पहुँचा। जहाँ अब से एक हजार वर्ष | गोम्मटेश्वर बाहुबली की यह मूर्ति यद्यपि दिगम्बर जैन पूर्व चैत्र शुक्ला पंचमी, विक्रम संवत् १०३८, दिनांक १३ | है, परन्तु वह संसार की अलौकिक निधि है, जो शिल्पकला मार्च सन् ९८१ ईस्वी, गुरुवार को वीरमार्तण्डचामुण्डराय ने | का बेजोड़ रत्न है। यह समग्र मानव जाति की अमूल्य गोम्मटेश्वर बाहुबली की ५७ फीट ऊँची एक विशालकाय | धरोहर है। इस मूर्ति में पाषाण, काठिन्य और कलात्मक अतिशय मनोज्ञ प्रस्तर प्रतिमा की स्थापना अपने महनीय गुरु | कामनीयता का मणि-काँचन योग इतना बेजोड़ है, कि एक सिद्धान्तचक्रवर्ति श्री नेमिचन्द्र जी के सान्निध्य में की थी। | हजार वर्ष बीत जाने पर भी चामुण्डराय गंगवंशी राजा राचमल्ल (९७४-९८४ ईस्वी) | प्रकृति देवी की अमोघ शक्तियों से बातें करती हई अक्षण्य का यशस्वी प्रधानमंत्री और सेनापति था। वह महान् राष्ट्रभक्त | है। आगे, पीछे, बगल में बिना किसी आश्रय तथा बिना था। उसने इस वंश के तीन शासकों के साथ राष्ट्रसेवा की | किसी छाया के अवस्थित यह मूर्ति विश्व का आठवाँ आश्चर्य थी। अभिलेखों में उसकी विस्तत यशोगाथा का वर्णन प्राप्त | है। यह कला का चरमोत्कृष्ट निदर्शन है। महाकवि कालिदास होता है। उसे अनेक उपाधियाँ प्राप्त थीं। चामुण्डराय एक | की यह पंक्ति-'क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं बुद्धिमान् महामात्य, राजनेता, वीरयोद्धा, सेनापति और रमणीयतायाः'- इस मूर्ति पर अक्षरश: चरितार्थ होती है। उच्चकोटि का साहित्यकार भी था। चामुण्डराय का घरेलू भगवान् बाहुबली की यह मूर्ति वर्तमान क्षुब्ध संसार को नाम 'गोम्मट' था। उसके इस नाम के कारण ही उनके द्वारा | संदेश दे रही है कि परिग्रह और भौतिक पदार्थों की ममता स्थापित बाहुबली की मूर्ति 'गोम्मटेश्वर' के नाम से प्रसिद्ध | ही पाप का मूल है। जिस राज्य के लिए भरतेश्वर ने मुझसे हुई। डॉ.ए.एन.उपाध्ये प्रभृति विद्वानों के मतानुसार 'गोम्मटेश्वर' । संग्राम किया, मैंने विजयी होकर भी उस राज्य को जीर्णका अर्थ है-'चामुण्डराय का देवता'। इसी गोम्मट उपनाम | | तृणवत् क्षण भर में त्याग दिया। यदि तुम शांति चाहते हो तो धारी चामुण्डराय के लिए ही नेमिचन्द्राचार्य ने 'गोम्मटसार' | मेरे समान निर्द्वन्द्व होकर आत्मरत होओ। यह मूर्ति त्याग, नामक ग्रन्थ की रचना की थी। तपस्या और तितिक्षा का प्रतीक है। यद्यपि चामुण्डराय को अनेक मंदिरों और मूर्तियों के | | परमपूज्य ऐलाचार्य मुनि श्री १०८ विद्यानन्दजी के पावन निर्माण कराने का श्रेय है, किन्तु भारत को उनकी सबसे | सान्निध्य में २२ फरवरी १९८१ ईस्वी, रविवार को इस मूल्यवान देन श्रवणबेलगोल स्थित ५७ फीट ऊँची बाहुबली | विश्वविश्रुत मूर्ति का सहस्राब्द प्रतिष्ठापना तथा महा की एक ही प्रस्तरखण्ड से निर्मित मनोरम मूर्ति है। मस्तकाभिषेक महोत्सव सम्पन्न हुआ था। उस महोत्सव में ___ श्रवणबेलगोल कर्नाटक राज्य के हासन जिले में अत्यन्त | देश-विदेश के लक्ष-लक्ष जन सम्मिलित होकर भगवान् प्राचीन, रमणीक और विश्वविख्यात सांस्कृतिक तीर्थस्थल | बाहुबली और भारतीय अध्यात्म के प्रति अपनी श्रद्धानिर्भर है। यहाँ के शिलालेख भव्य, प्राचीन मंदिर और विशाल | अंजलि समर्पित कर चुके हैं। इस भव्य मूर्ति के प्रतिष्ठाचार्य, जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित /11 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524304
Book TitleJinabhashita 2006 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
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