SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गोम्मटेश्वर बाहुबली और गोमटेसथुदि : एक अनुशीलन डॉ. भागचन्द्र जैन 'भागेन्दु' प्रत्येक अतीत से वर्तमान उपजता है, और प्रत्येक वर्तमान | प्रस्थित हैं, तब उन्हें प्रणति-निवेदन कैसे उपयुक्त हो सकता भविष्य का सर्जक है। इतिहास का यह चक्र काल की | है? अत: मुझे पराजित किये बिना भरत इस पृथ्वी का ध्रुवता की धुरी पर घूमता है। अतीत के किस कालखण्ड के | उपभोग नहीं कर सकते। प्रणाम के स्थान पर मैं उन्हें समाह्वय छोर पर आरम्भ हुआ होगा वह ध्रुव, जिसके चौदहवें मनु या| ही दे सकता हूँ। कुलकर नाभिराय थे? स्वयं नाभिराय के पुत्र, प्रथम तीर्थंकर फलतः संघर्ष अनिवार्य हो गया। दोनों ओर से भयंकर आदिनाथ-ऋषभदेव युग-प्रणेता पुराण पुरुष हैं। उनका | युद्ध की तैयारी हुई। दोनों ओर के मंत्रियों ने सोचा कि ये व्यक्तित्व एक ऐसी आधारशिला है, जिसके ऊपर विश्व के | दोनों भाई तद्भव मोक्षगामी हैं, अत: युद्ध में जन-धन की समस्त धर्मों का एक सर्वमान प्रासाद खड़ा किया जा सकता है। अनावश्यक हानि नहीं होना चाहिए। इसलिए भरत और राज्य व्यवस्था सम्पादित करने में सन्नद्ध भगवान् ऋषभदेव | बाहुबली दोनों में सीधा धर्मयुद्ध हुआ। भरत दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध के दरबार में देवों और अप्सराओं के साथ समागत इन्द्र | और मल्लयुद्ध में पराजित हो गये तो, उन्होंने रीझकर बाहुबली चिन्तित था कि भगवान् राज्य और भोगों से किस प्रकार | पर 'चक्ररत्न' चला दिया, किन्तु बाहुबली के अवध्य होने विरक्त होंगे? चिंतन के उपरांत इन्द्र ने नृत्य के लिए ऐसे पात्र | के कारण वह बाहुबली की प्रदक्षिणा देकर निस्तेज हो भरत को नियुक्त किया जिसकी आयु अत्यन्त क्षीण हो गई थी, | के पास ही वापस चला गया। वह थी 'नीलांजना' अप्सरा। नृत्य करते-करते ही आयु के इस पर बाहुबली ने सोचा कि देखो! इस नश्वर राज्य के क्षय होने से क्षण भर में वह विलीन हो गई। इस प्रसंग ने | लिए हमारे बड़े भाई ने हमें मारने का कैसा जघन्य कार्य भगवान् ऋषभदेव के हृदय पर गहरा प्रभाव डाला। वे संसार, | किया है? वस्तुत: यह राज्य तो क्षणभंगुर है। अत: वे विरक्त शरीर तथा भोगों की क्षण-भंगुरता पर विचार करके तत्क्षण| हो गये और मनिव्रत को धारण कर निर्ग्रन्थ बन गये। उन्होंने विरक्त हो गये एवं काललब्धि को पाकर मुक्ति के मार्ग पर | निरंतर एक वर्ष तक निराहार खड़े रहकर 'प्रतिमा-योग' समुद्यत हुए और उग्र-तपस्या के द्वारा उन्होंने केवलज्ञान | धारण किया। वन की लताएँ उन पर छा गयीं। सर्प तथा प्राप्त किया। अन्य विषैले सरीसप उनके ऊपर फूत्कार करते रहे। केश भगवान ऋषभदेव की विरक्ति के उपरान्त यद्यपि'राजा' कंधों तक आ गये। उनके मन में इस बात का पश्चात्ताप उपाधि से भरत और बाहुबली दोनों को अलंकृत किया गया। विद्यमान था कि भरतेश्वर को मुझसे दुःख पहुँचा है। अत: था. किन्त कल में ज्येष्ठ होने के कारण भरत अपना वर्चस्व | जब भरत ने उनकी पूजा की तो वे पश्चात मक्त हो गये चाहते थे, अतः उन्होंने दिग्विजय के लिए प्रयाण किया।| और उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया है। (महापुराण ३६/ सर्वत्र हार्दिक स्वागत प्राप्त करते हुए वापसी में उनका 'चक्र'| १८६) । बाहुबली सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो गये 3 अयोध्या के गोपुरद्वार को पार करके आगे नहीं जा सका और | के बाद शेष कर्मों का क्षय करके मुक्त हो गये। इस प्रका अटककर वहीं रुक गया। तब आश्चर्यचकित सभी को भगवान् ऋषभदेव के इतिवृत के चित्र में उनके दोनों पुत्रों निमित्तज्ञानियों ने बताया कि हे महाराज भरत ! यद्यपि आपने | भरत और बाहुबली के रंगों में पूर्णता आई है। भरत और बाहर विजय प्राप्त कर ली है तथापि आपके घर के सदस्य | बाहुबली दोनों महामानव थे। दोनों के चरित्र स्वतंत्र हैं, किन्तु अभी आपके अनुकूल नहीं हैं, इनमें आपके भाई बाहुबली | दोनों परस्पर पूरक भी हैं । बाहुबली का चित्र बहुरंगी है और प्रमुख हैं। उनका प्रत्येक रंग चटकदार है। उनकी महानता आकाश बाहुबली के पास संदेश भेजा गया कि वे भरत को | की ऊँचाइयों को छूती है। उनके जीवन के हर मोड़ पर एक प्रणाम कर सम्मानित करें। बाहुबली इस मर्मभेदक संदेश | नया कीर्तिमान स्थापित होता चलता है। को सहन नहीं कर सके। उन्होंने उत्तर दिया कि 'अग्रज | वे इस युग के प्रथम कामदेव (त्रिलोक सुन्दर) थे, अत: नमस्कार करने योग्य हैं ' यह बात सामान्य समय में उचित | 'गोम्मटेश्वर' कहलाते थे साथ ही अप्रतिम बली थे इसलिए है, किन्तु जब वह तलवार धारण कर दिग्विजय के लिए | वे 'बाहुबली' कहलाते थे। वे अपने अधिकारों की रक्षा के 10 / जनवरी-फरवरी 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524304
Book TitleJinabhashita 2006 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2006
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy